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अंतरात्मा परमात्मा का प्रतीक-प्रतिनिधि

by Bhanu Pratap Mishra

पं. श्रीराम शर्मा आचार्य – मनुष्य में जहाँ शारीरिक-मानसिक स्तर की अनेक विशेषताएँ हैं। वहीं उसकी वरिष्ठता इस आधार पर भी है कि उसमें अंतरात्मा कहा जाने वाला एक विशेष तत्त्व पाया जाता है। उसमें उत्कृष्टता का समर्थन और निकृष्टता का विरोध करने की ऐसी क्षमता है, जो अन्य किसी प्राणी में नहीं पाई जाती। जीव-जंतुओं में उनकी इच्छा या आवश्यकता की पूर्ति के निमित्त ही कई प्रकार की प्रेरणाएँ उठती हैं।

इनमें उन्हें नीति अनीति से कोई मतलब नहीं रहता। उदारता नाम की वस्तु मात्र मादाओं में उस सीमा या समय तक पाई जाती है, जब तक कि उनकी संतानें असमर्थ रहती या स्वावलंबी नहीं बनतीं। इस अवधि के समाप्त होने पर उनका ममत्व समाप्त हो जाता है। यौन कार्य के समय भी नर-मादा में कुछ आकर्षण या सहयोग जैसा सौजन्य उभरता है। आवश्यकता पूर्ण होने पर वह भी आमतौर से विस्मृत होते देखा गया है।

जोड़ा मिलकर देर तक साथ-साथ रहने वाले तो कुछेक पक्षी ही पाए गए हैं। मनुष्यों में स्नेह-सौजन्य, औचित्य, न्याय एवं उदारता, सद्भावना से भरे गुण पाए जाते हैं। ऐसा किसी स्वार्थ या लोभ से प्रेरित होकर नहीं, वरन अंतराल की गहरी परतों से उद्भूत होता और इतना प्रखर रहता है कि आदर्शवादिता के निमित्त कष्ट सहने या घाटा उठाने के लिए भी तत्परता बरती जा सके। यही अंतरात्मा है, जो सत्कर्म करने पर भीतर ही भीतर प्रसन्न होती, गर्व-संतोष प्रकट करती हुई देखी जाती है।

अनीति अपनाते समय अंतर्द्वंद्व विक्षुब्ध होता है और आत्मप्रताडना की पीड़ा अपने आप ही सहनी पड़ती है। भर्त्सना, प्रताड़ना का भय न हो, तो भी दुष्कर्म करते समय भीतर जी काटता कचोटता है, यही अंतरात्मा है। उसका प्रोत्साहन यह रहता है कि आदर्शवादिता अपनायी जाए और दूसरों के सामने अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किए जाएँ।

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