सैतालिस का बंटवारा भी कोई अंधा रोष रहा होगा।
जिन्ना की भूख रही होगी, गाँधी का दोष रहा होगा।।
परम श्रद्धेय डॉ. हरिओम पंवार अपने इन पक्तियों को जब उच्चारित करते हैं, तो कहते हैं कि मैं उस कालावधि में पैदा नहीं हुआ था। इसलिए मैं यह नहीं जानता की भारत के बंटवारे की भूख किसे थी और दोषी कौन था। लेकिन उस बंटवारे की विभीषिका अखंड भारत की एक ऐसी घटना है, जो भारतीय जनमानस को झंकझोर कर रख देती है। भारत के प्राचीन इतिहास पर यदि एक नजर डांले तो मिलता है कि भारत में संयुक्त परिवार की अवधारणा वैदिक काल, उत्तर वैदिक काल और महाजनपद काल से होते हुए मौर्य काल, मौर्य उत्तर काल, गुप्त काल, गुप्त उत्तर काल तक बनी रही।
इतिहासकारों द्वारा लिखे गये भारत के प्राचीन इतिहास के साहित्यिक और पुरातात्विक दोनों प्रकार के स्रोतों से संयुक्त परिवार की अवधारण का प्रमाण मिलना यह बताता है कि भारतीयों में वसुधा पर रहने वाले हर व्यक्ति को कुटुम्ब मानने की क्षमता कहाँ से विकसित हुई है। क्योंकि संयुक्त परिवार में जिस व्यक्तित्व का निर्माण होता है, वह व्यक्तित्व सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय की अवधरणा से परिपूर्ण होता है। यही कारण है कि भारतीय जनमानस में आज भी सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया कहने की क्षमता है।
सातवीं शताब्दी में भारत पर दो आक्रांताओं ने आक्रमण किया, जिनको सिंध के राजा दाहिर द्वारा पराजित कर मृत्यु दण्ड दिया गया। उसके पश्चात् भारत में गुप्त उत्तर काल अर्थात् आठवीं शताब्दी के आरम्भिक दौर में आक्रांता मुहम्मद बिन कासिम आता है और सिंध के राजा दाहिर की हत्या करने के उपरान्त सिंध पर अपना आधिपत्य कर लेता है। और यहीं से लोगों में अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए एक राजनैतिक विचारधारा का बीज अखण्ड भारत के नींव में डाला जाता है, जो कि वर्ष 1947 के विभाजन का कारण ही नहीं, अपितु विभीषिका का भी कारक रहा।
पूरे विश्व में रक्तपात द्वारा स्थापित हुआ यह विचारधारा अखण्ड भारत में वर्ष 1947 के विभाजन में ऐसा वीभत्स रूप दिखाता है, जिसमें औपचारिक आंकड़ों के अनुसार 20 लाख लोगों की हत्याएँ हो जाती हैं। इसमें लगभग 10 लाख महिलाओं की संख्या होेगी, जिनका बलात्कार करने के बाद हत्याएँ कर दी गयीं और लगभग 1.5 करोड़ लोग वर्तमान भारत में शरणार्थी बन गए थे। इसे कुछ इतिहासकार अफ्रीकी देश रंवाडा में हुए नरसंहार से भी बड़ा नरंसहार बताते हैं।
एक राजनैतिक विचारधारा अखण्ड भारत में आठवीं शताब्दी में प्रवेश करती है और उसके कारण बीसवीं शताब्दी में भारत का विभाजन हो जाता है। इसलिए विभीषिका स्मृति दिवस कोई सामान्य दिवस नहीं है, इस दिन हमें अपनों को श्रद्धांजलि तो देना ही है। साथ ही साथ अपने विमर्श के केन्द्र में उस राजनैतिक विचारधारा के विषाक्त विचार को रखना पड़ेगा, जो हमारे सांस्कृतिक व्यक्तित्व के निर्माण में बाधक है।
महर्षि अरविंद की अखण्ड भारत की अवधारणा
महर्षि अरविन्द के जन्म और समाधि के विषय में जानकारियाँ तो सर्व विदित हैं। लेकिन उनके जीवन का आदर्श और उनके चिन्तन के केन्द्र की जानकारी लोगों के बीच कम उपलब्ध है। यही कारण है कि हम इस लेख में उनके आदर्शों और चिन्तन को उकेरने का प्रयास कर रहे हैं। भारत की यह भूमि राम और कृष्ण की भूमि है।
इसलिए इस भूमि पर अवतरित हुए महापुरूषों के आदर्शों और चिन्तन को अपने जीवन में अंगीकार करने से ही सांस्कृतिक रूप से परिपूर्ण शसक्त व्यक्तित्व का निर्माण होगा। इस विषय पर आचार्य चाणक्य कहते हैं कि व्यक्ति से व्यक्ति के एकीकरण से ही समाज का निर्माण होता है और समाज में एकीकरण के प्रक्रिया से राष्ट्र का निर्माण होता है।
इसलिए वे व्यक्तित्व निर्माण को ही राष्ट्र निर्माण की प्राथमिक इकाई बताते हैं और महर्षि अरविन्द के चिन्तन का केन्द्र भी व्यक्तित्व निर्माण ही रहा है। महर्षि अरविन्द का स्वतंत्रता के आंदोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका लार्ड कर्जन के बंग-भंग योजना लाने के बाद आरम्भ होती है। कुछ कालावधि तक उन्होंने अध्यापन कार्य किया।
उसके पश्चात् वे स्वदेशी आन्दोलन को गति देते हुए भारतीय परिधान धोती, कुर्ता और चादर पहनना आरम्भ कर दिया। तत्पश्चात् उन्होंने बन्दे मातरम् नामक पत्रिका के प्रकाशन का कार्य प्रारम्भ किया और उसके माध्यम से स्वतंत्रा के आनंदोलन को गति देने के कार्य को जारी रखा। ब्रिटिश सरकार इनके क्रन्तिकारी विचारों और कार्यों से अत्यधिक आतंकित थी।
अतः 2 मई 1908 को चालीस युवकों के साथ उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया। इतिहास में इसे अलीपुर षडयन्त्र केस के नाम से जाना जाता है। उन्हें एक वर्ष तक अलीपुर जेल में कैद रखा गया। इस षड़यन्त्र में महर्षि अरविन्द को शामिल करने के लिए सरकार की ओर से जो गवाह तैयार किया गया था। उसकी एक दिन जेल में ही हत्या कर दी गयी।
उसके बाद महर्षि अरविन्द के पक्ष में प्रसिद्ध बैरिस्टर चितरंजन दास ने मुकदमे की पैरवी की और चितरंजन दास ने अपने प्रबल तर्कों के आधार पर महर्षि अरविन्द को सारे अभियोगों से मुक्त घोषित कर दिया। इससे सम्बन्धित अदालती फैसले 6 मई 1909 को जनता के सामने आए। उसके बाद 30 मई 1909 को हावड़ा के पास उत्तरपाड़ा में एक सभा की गयी।
वहाँ महर्षि अरविन्द का एक प्रभावशाली व्याख्यान हुआ, जो इतिहास में उत्तरपाड़ा अभिभाषण के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उन्होंने उत्तरपाड़ा में ही सनातन हिन्दू संस्कृति के चिन्तन का केन्द्र रहा व्यक्तित्व निर्माण को रेखांकित करते हुए हिन्दू राष्ट्र की अभिकल्पना पर भी जोर दिया। उनके संबोधन की व्याख्या एक तो सतही तौर पर हिन्दू धर्म से जोड़कर देखा जा सकता है।
जबकि वे एक विस्तृत चिन्तन को वहाँ प्रस्तुत कर रहे थे। वह चिन्तन जीवन की पद्धतियाँ और शैली से निर्मित होने वाले उत्कृष्ट वैचारिक व्यक्तित्व के निर्माण पर आधारित था। भारत के एक विचारक रहे गुरू गोलवलकर का कहना था कि विज्ञान जितना उन्नति करेगा, उतना ही सनातन हिन्दू संस्कृति के समीप होता जाएगा।
इसका उदाहरण नासा द्वारा ली गयी रामसेतु की तस्वीर से ली जा सकती है, जिसको वैज्ञानिकों ने अब माना है कि समुद्र पर यदि सेतु बनाना हो तो उसी प्रकार बनाया जा सकता है, जिस प्रकार रामसेतु बनाया गया था, नहीं तो समुद्र की लहरों से सेतु टूट जाएगा। इसलिए यह कहना कहीं से भी अतिशयोक्ति नहीं होगा कि महर्षि अरविन्द द्वारा प्रस्तुत किया गया चिन्तन आज नवीन भारत की आवश्यकता है।
क्योंकि यदि महर्षि अरविन्द के चिन्तन को तात्कालीन भारत के स्वतंत्रता संग्राम में स्थान दिया गया होता, तो ना ही बंटवारे के विभीषिका का भीषण संत्रास भारत को झेलना पड़ता और अखण्ड भारत के कुछ हिस्सों में आज भी लोग संत्रास झेल रहे हैं। वह संत्रास भी, आज के वैश्विक गांव के पटल पर देखने को नहीं मिलता। यह तो विचारों से ऊपजा संत्रास था, जिसकी औषधि विचारों में ही निहित है और वही विचार महर्षि अरविंद के चिन्तन का केन्द्र था।