बिहार के पारम्परिक मनोरंजन के संसाधन

इन्हीं लोककलाओं के माध्यम से पारम्परिक रूप से लोगों तक मनोरंजन, शिक्षण व सूचना पहुंचाने का कार्य किया जाता है। इसी कारण से कहा जाता है कि बिहार की लोककलाएँ ही वहां की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की परिचय देती हैं।

by Bhanu Pratap Mishra

बिहार की लोककलाएँ देती वहां की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की परिचय

भारत के अन्य प्रदेशों की भांति बिहार की लोककलाएँ मनोरंजन, शिक्षण और सूचना आदान -प्रदान की माध्यम होती हैं। वहीं बिहार के अलग-अलग क्षेत्रों में भाषायी भिन्नता होने के कारण बिहार की लोककलाएँ अलग-अलग प्रकार की पाई जाती है।

इन्हीं लोककलाओं के माध्यम से पारम्परिक रूप से लोगों तक मनोरंजन बिहार के पारम्परिक मनोरंजन के संसाधन, शिक्षण व सूचना पहुंचाने का कार्य किया जाता है। इसी कारण से कहा जाता है कि बिहार की लोककलाएँ ही वहां की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की परिचय देती हैं।

भानु प्रताप मिश्र

बिहार की लोककलाएँ और लोक संस्कृति : ग्रामीण एवं नगरीय स्तर पर जन्म, जनेऊ, तिलकोत्सव, विवाहोत्सव, कटनी, पिसनी, रोपनी आदि के समय जो गीत गाये जाते हैं।

उसे लोक गीत कहा जाता है। यह वहाँ की संस्कृति को प्रदर्शित करते हैं। बिहार में भी उपरोक्त अवसरों पर गाये जाने वाले लोकगीत हैं।

ये गीत उल्लासपूर्ण भक्ति, प्रेम, परिहास, उलाहना के साथ स्वागत एवं विदाई के भाव से युक्त होते हैं। खिलौना, सोहर, झूमर, ज्योनार, अंतसार, सांझा, पराती, रोपनीगीत, होली, चैता आदि

प्रकार के लोकगीत बिहार में गाये जाते हैं और ये लोकगीत बिहार की लोकसंस्कृति के हिस्से के साथ-साथ अन्तस की अभिव्यक्ति भी हैं।

जनेऊ तथा विवाह और मण्डपाच्छादन, स्नान, तिलक, स्वागत, भोजन, गुरहथी, सिन्दूरदान, कोहबर, कन्या विदाई आदि प्रसंगों के गीत भी बिहार की लोकसंस्कृति के हिस्से हैं। इन्हें नारी समाज ने सदियों से अपनी चेतना और स्मृति में संजो रखा है।

मिथिला और नचरी जैसे गीतों की मनमोहक परम्परा भी बिहार के लोकगीत की मूल्यवान निधि है। यह लोकगीत भोजपुरी, मगही, मैथिली, अंगिका आदि भाषाओं में समान रूप से गाये जाते हैं।

लोक नृत्य : बिहार के अधिकांश लोक नृत्य धार्मिक होते हैं, जिसमें देवी-देवताओं को नृत्य के माध्यम से आमंत्रित किया जाता है और लोक नृत्यों को संगीत के ताल पर प्रदर्शित किया जाता है।

बिहार के लोक नृत्य, बिहार के दर्शन को भी अभिव्यक्त करते हैं। इन लोक नृत्यों के माध्यम से बिहार का सामाजिक चिन्तन भी प्रदर्शित किया जाता है।

बिदेसिया नृत्य : बिदेसिया नृत्य नाटक का एक रूप है। जो 20 वीं शताब्दी के लोक रंगमंच में उत्पन्न हुआ। यह बिहार के भोजपुरी भाषी क्षेत्र में प्रचलित है।

बिदेसिया वास्तव में एक प्रकार का एक नाटक है। जो परम्परा और आधुनिकता, शहरी और ग्रामीण, अमीर और गरीब जैसे विरोधाभाषी विषयों से सम्बन्धित है।

भीखारी ठाकुर इस नृत्य के निर्माता हैं। इस नृत्य का उपयोग इसके निर्माता के विचारों को निष्पादित करने के लिए किया जाता है। बिदेसिया में महिला के अभिनय को भी पुरूष द्वारा ही मंचित किया जाता है। इस नृत्य की पोषाक धोती और पतलून होती है।

जाट-जतिन नृत्य : उत्तर बिहार, जिसमें मिथिला और कोशी क्षेत्र आता है। वहाँ जाट – जतिन नृत्य सबसे लोकप्रिय नृत्य है, जिसे युगल नृत्य के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।

यह नृत्य कई सामाजिक विषयों, जैसे – गरीबी, प्रेम दुःख, तर्क आदि को प्रस्तुत करता है। इस नृत्य का मूल विषय जाट और जतिन की प्रेम कहानी से उत्पन्न हुआ है।

जुमरी नृत्य : जुमरी नृत्य भारतीय राज्य बिहार में प्रसिद्ध नृत्यों में से एक है। इस तरह के नृत्य स्थानीय संस्कृति और परम्परा के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं।

यह नृत्य गुजरात के गरबा नृत्य से मिलता जुलता नृत्य है अर्थात् इस नृत्य और गुजरात के गरबा नृत्य में कुछ समानताएँ हैं। यह नृत्य विवाहित महिलाओं के लिए विशिष्ट है।

झिझिया नृत्य : बिहार की झिझिया नृत्य एक प्रसिद्ध लोक नृत्य है। यह नृत्य प्रकृति में अनुष्ठानिक है और वर्षा के देव इन्द्र को प्रसन्न करने के लिए किये जाने वाले अनुष्ठान का एक हिस्सा है।

जिसके परिणाम स्वरूप एक वर्ष तक अच्छी गुणवत्ता वाली फसल प्राप्त करने की उम्मीद होती है। कटाई के मौसम में पुरूष और महिलाएँ इस नृत्य के साथ-साथ अपना काम करते हैं।

नृत्य के प्रतिभागियों में एक प्रमुख गायक, हारमोनियम वादक, एक बाँसुरी वादक और एक ढोलक वादक शामिल होते हैं। यह नृत्य केवल महिलाओं के लिए ही है।

कजरी नृत्य : इस नृत्य का विषय बरसात के मौसम को पुरस्कृत करना होता है। न केवल जलवायु में परिर्वन बल्कि मानसिक रूप से ताजगी और सुकून भी इस नृत्य में वर्णित होता है।

यह नृत्य प्रदर्शन बारिश के मौसम की शुरूआत में की जाती है।इस नृत्य के माध्यम से समाज में प्रकृति और पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूकता का सन्देश दिया जाता है।

पाइका नृत्य :  पइका नृत्य बिहार का एक प्रसिद्ध नृत्य है। नृत्य प्रदर्शन का मूल उद्देश्य नृत्य करने वाले योद्धाओं की शारीरिक उत्तेजना और साहसी गतिविधियों का विकास था। यह नृत्य ढाल और तलवार के साथ किया जाता है।

बिहार का लोकनाट्य : (1) जाट-जतिन लोकनाट्य (2) समा-चकेवा लोकनाट्य (3) बिदेसिया लोकनाट्य (4) भकुली लोकनाट्य (5) डोककक्ष लोकनाट्य (6) किरतनिया लोकनाट्य।

जाट-जतिन लोकनाट्य : जाट-जतिन लोकनाट्य बिहार के प्रसिद्ध लोकनाट्यों में से एक है। इसका प्रचलन सम्पूर्ण बिहार में है। इस लोकनाट्य का प्रस्तुति करण, सावन से लेकर कार्तिक महीने तक चाँदनी रात में स्त्रियों के द्वारा किया जाता है।

यह लोकनाट्य प्रायः दाम्पत्य जीवन पर आधारित होता है। मात्र अविवाहिताओं द्वारा अभिनीत इस लोकनाट्य में जाट-जतिन के वैवाहिक जीवन को प्रदर्शीत किया जाता है। इस लोकनाट्य में जट और जटिन की भूमिकाएँ कुँवारी कन्याएँ अदा करती हैं।

समा-चकेवा लोकनाट्य : समा-चकेवा लोकनाट्य बिहार में प्रत्येक वर्ष कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की सप्तमी से पूर्णिमा तक किया जाता है। इस लोकनाट्य में कुँवारी कन्याओं के द्वारा अभिनय प्रस्तुत किया जाता है। अभिनय में समा अर्थात् श्यामा तथा चकेवा की भूमिका निभायी जाती है।

बिदेसिया लोकनाट्य : बिदेसिया बिहार राज्य के लोकनाट्य में से एक है। यह लोकनाट्य बिहार के भोजपुरी क्षेत्र में अत्यन्त लोकप्रिय ‘लौंडा नृत्य’ के साथ आल्हा, पचड़ा, बारहमासा, पूरबीगोंड, नेटुआ, पंवड़िया, आदि की छाया होती है।

इस लोकनाट्य का आरम्भ मंगला चरण से होता है। इसमें महिला पात्रों की भूमिका भी पुरूष कलाकारों द्वारा ही किया जाता है। पात्र भूमिका भी निभाते हैं और पृष्ठभूमि में गायन-वादन का भी कार्य करते हैं।

भकुलीबंका लोकनाट्य : भकुलीबंका बिहार का प्रमुख लोकनाट्य है। जो प्रत्येक वर्ष सावन से कार्तिक मास तक मंचन किया जाता है। यह लोकनाट्य जाट-जतिन के साथ प्रस्तुत किया जाता है। अब कुछ लोग स्वतंत्र रूप से भी इसमें भाग लेने लगे हैं।

इस लोकनाट्य में अंका, बंका, टिहुली और भकुली प्रमुख पक्ष हैं। इस लोकनाट्य में भकुली (पत्नी) एवं बंका (पति) के वैवाहिक जीवन को दर्शाया जाता है।

डोककक्ष लोकनाट्य : डोककक्ष बिहार में किया जाने वाला एक अत्यन्त घरेलू एवं निजी लोकनाट्य है। यह मुख्यतः घर-आँगन परिसर में विशेष अवसरों और विवाह आदि यथा बारात जाने के बाद देर रात्रि में महिलाओं द्वारा आयोजित किया जाता है।

इस लोकनाट्य का मंचन करते समय इतनी सावधानी बरती जाती है कि अल्पायु परिजन उसे देख-सुन ना सकें।

इसका कारण यह होता है कि इस लोकनाट्य में हास-परिहास के साथ ही अश्लील हाव-भाव के साथ प्रसंग और संवाद होते हैं, जो विवाहितों द्वारा मुक्त कण्ठ से सराहे जाते हैं। इसलिए इस लोकनाट्य का सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं किया जाता है।

किरतनिया लोकनाट्य : बिहार में किया जाने वाला एक भक्तिपूर्ण लोकनाट्य है। इसमें कृष्ण लीला का वर्णन किया जाता है। इस भक्तिपूर्ण लोकनाट्य में भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन भक्ति गीतों को कीर्तन में प्रस्तुत किया जाता है,

जिसे किरतनिया कहते हैं। इसमें भाव और श्रद्धा दोनों मिश्रित रहता है। किरतनिया में ढोलक, झांझ, हारमोनियम आदि वाद्य यंत्रों के साथ कीर्तन किया जाता है।

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