भानु प्रताप मिश्र
भारत के प्रसिद्ध पारम्परिक नाटक या लोकनाट्य
(1) यात्रा/जात्रा : यह पूर्वी भारत का धार्मिक लोकनाट्य है। यह लोकनाट्य श्री चैतन्य महाप्रभु के भक्ति आन्दोलन से उत्पन्न हुआ माना जाता है। जिसमें रूक्मिणी हरण को नाटक के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। ओडिशा में जात्रा लोकनाट्य संगीत के साथ प्रस्तुत किया जाता है। हालाँकि प्रारम्भ में इसे पारम्परिक और ग्रामीण शैली के साथ शुरू किया गया था। आज यह वाणिज्यिक और उपनगरीय बन गया है और नगरीय क्षेत्रों में भी इस लोक नाट्य का मंचन लोक संचार में प्रभावशाली भूमिका का निर्वहन करता है।
(2) रामलीला : इस लोकनाट्य की शुरूआत गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानास के आधार पर मुगलकाल में काशी से माना जाता है। लेकिन इसका पूर्ण विकास राधेश्यम रामायण से हुआ। इस नाटक का विषय रामायण की कहानी होती है। जो कि दशहरा के दौरान नाट्य रूप में प्रदर्शित किया जाता है।
यह लोकनाट्य छोटे, बड़े, बूढ़े, अमीर, गरीब, महिला और पुरूष सभी वर्ग में बहुत ही लोकप्रिय है। यह भारतीय लोकनाट्य, भारत ही नहीं अपितु कई अन्य देशों में भी प्रसिद्ध है। जैसे – रूस, नेपाल, जावा, सुमात्रा, और इंडोनेशिया आदि में इस लोकनाट्य का मंचन किया जाता है।
(3) रासलीला : इस लोकनाट्य में बालक, किशोर और युवा श्रीकृष्ण की लीलाओं को नाटक के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इसे जन्माष्टमी के अवसर पर कान्हा की सारी अठखेलियों को एक धागे में पिरोकर यानी उनको नाटकीय रूप देकर रासलीला या कृष्ण लीला खेली जाती है। इसलिए जन्माष्टमी की तैयारियों में
श्री कृष्ण की रासलीला का आनंद मथुरा और वृंदावन तक ही सीमित न रहकर पूरे देश में छा जाता है। इस मौके पर जगह-जगह रासलीलाओं का मंचन होता है। जिसमें सजे-धजे कृष्ण को अलग-अलग रूप में रखकर राधा के प्रति अपने प्रेम को व्यक्त करते दिखाया जाता है।
(4) स्वांग : यह पंजाब, हरियाणा, ओडिशा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड और बंगाल के ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत प्रसिद्ध है। किसी रूप को स्वयं में आरोपित कर, उसे प्रस्तुत करना ही स्वांग है। भावनाओं की नम्रता और संवाद की तीव्रता तथा विशिष्ट परिधान इस लोकरंग की विशेषताएँ हैं।
स्वांग की दो महत्वपूर्ण शैलियाँ होती है : (1) रोहतक शैली और (2) हाथरस शैली। रोहतक शैली में हरियाणवी (बंगरू) भाषा का प्रयोग किया जाता है। वहीं हाथरस शैली में ब्रज भाषा का प्रयोग किया जाता है।
(5) नौटंकी : यह उत्तर भारत का प्रसिद्ध लोकनाट्य है। इस लोकनाट्य को उत्तर भारत का पारम्परिक लोकनाट्य माना जाता है। ऐसा कहा जाता है कि इस शैली को रंगमंच के भगत रूप में विकसित किया गया था। जो कि लगभग 400 वर्ष पुराना है। लेकिन नौटंकी शब्द 19 वीं शताब्दी में अस्तित्व में आया है।
(6) दशावतार : यह कोंकण व गोवा क्षेत्र का सबसे विकसित और प्रसिद्ध लोकनाट्य है। पालन व सृजन के देवता भगवान विष्णु के दस अवतारों (जैसे – मत्स्य, वराह, कूर्म, नरसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध व कल्कि) को प्रस्तुत करते हैं। शैलीगत साज श्रृंगार से परे दशावतार का प्रदर्शन करने वाले लकड़ी व पेपरमेशी का मुखौटा पहने होते हैं।
(7) करियाला : यह हिमांचल प्रदेश का सबसे दिलचस्प और लोकप्रिय लोकनाट्य है। यह लोकनाट्य शिमला, सोलन और सिरमौर में लोकप्रिय है। इसका प्रदर्शन मनोरंजक नाट्य श्रृंखला में किया जाता है। जैसे – मेले और उत्सव के अवसरों के दौरान प्रस्तुत किया जाना।
(8) ख्याल : यह लोकनाट्य हिन्दुस्तान के कई प्रदेशों में प्रसिद्ध है। इसका उद्भव राजस्थान में हुआ माना जाता है। ख्याल राजस्थानी लोकनाट्य में से एक है। इसका मंचन विशेष रूप से पुरूषों द्वारा किया जाता है। इसका प्रदर्शन लय खण्ड और स्ट्रिंग यंत्र ख्याल के संयोग से किया जाता है। ख्याल के पेशेवर नर्तकियों को भवनी के नाम से जाना जाता है। इसका मंचन सामाजिक, ऐतिहासिक, धार्मिक और प्रेम पर आधारित होता है। हालाँकि यह विलुप्त होने के कगार पर है।
(9) तमाशा : तमाशा भारत के लोकनाटक का श्रृंगारिक रूप है। जो पश्चिम भारत के महाराष्ट्र राज्य में 16 वीं शताब्दी में शुरू हुआ था। अन्य सभी भारतीय लोकनाट्यों की प्रमुख भूमिका में प्रायः पुरूष होते हैं, लेकिन तमाशा में मुख्य भूमिका महिलाएँ निभाती हैं। उन्हें मुर्की के नाम से जाना जाता है। 20 वीं शताब्दी में तमाशा व्यवसायिक रूप में सफल हुआ। तमाशा महाराष्ट्र में प्रचलित नृत्यों और लोककलाओं को नया आयाम देता है। यह अपने आप में विशिष्ट कला है।
(10) ओट्टन थुलाल : यह केरल का नृत्य और काव्य संयोजन वाला लोकप्रिय लोकनाट्य है। जिसे 18 वीं शताब्दी में मलयालम के प्रसिद्ध कवि कुचन नंबियार द्वारा आरम्भ किया गया था। गायन, आधुनिक श्रृंगार और मुखौटा लगा चेहरा इस रंगमंच की कुछ विशेषताएँ हैं। इन्हीं विशेषताओं के कारण इस विधा की अलग पहचान है।
(11) तेरूक्कुट्टू : यह तमिलनाडु का लोकप्रिय लोकनाट्य है। इसका प्रदर्शन वर्षा की देवी मरिअम्मा को खुश करने के लिए किया जाता है। यह मनोरंजन, अनुष्ठान और सामाजिक निर्देश का एक माध्यम है।
(12) भाम कलापम : यह आंध्रप्रदेश का एक प्रसिद्ध लोकनाट्य है। यह वेश्या नर्तकियों से नृत्य की पवित्रता को बनाये रखने के लिए 16 वीं शताब्दी में सिद्धेन्द्र योगी द्वारा लिखा गया था। जिस प्रकार कुचीपुड़ी नृत्य में हावभाव तथा चेहरे की अभिव्यक्ति का उपयोग किया जाता है। उसी प्रकार से इस लोकनाट्य का मंचन किया जाता है।
(13) पोवड़ : यह महाराष्ट्र का एक लोक नृत्य नाटक है। इसका कथानक ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित होता है। इस लोक नाटक के मंचन में ढाप, मंजीरा और तुनतुनी (सितार जैसा एक वाद्य यंत्र) आदि वाद्य यंत्रों की धुन पर गीत गाया जाता है। कलाकारों का नेतृत्वकर्ता गाना गाता है और अन्य कलाकार उसके नेतृत्व में हाव-भाव व कथानक में उपस्थित सूचना को संवाद के माध्यम से समूह तक पहुँचा देते हैं।
शिवाजी द्वारा अफजल खान को मार दिये जाने के बाद उनकी बीरता पर एक नाटक की रचना की गयी। इस लोक नाटक को पावड़ा भी कहा जाता है। इस लोक नृत्य नाटक का उदभव 16वीं शताब्दी से माना जाता है।
(14) यक्षगान : यक्षगान कर्नाटक का एक लोकप्रिय और पुरातन लोकनाटक है। इसकी कथानक वस्तु श्रीमद् भगवत गीता, रामायण पर आधारित होती है। इस लोकनाट्य की प्रस्तुति में स्थानीय क्षेपक भी समय-समय पर विद्वानों द्वारा जोड़ा गया है। जो कि स्थानीयता को प्रदर्शित करता है। भारत के अन्य लोकनाट्यों की भाँति कथानक वस्तु, संगीत व अभिनय के मिश्रण से इस लोकनाटक का मंचन किया जाता है।
कथा वाचक द्वारा इस लोक नाट्य में कथा सुनायी जाती है और अन्य पात्रों द्वारा नाट्य कला के माध्यम से उसके भाव लोगों तक पहुँचाया जाता है। इसमें नृत्य के कई चरण होते हैं और नृत्य के उन आयामों पर युद्ध के चरणों का अभिनय किया जाता है। इसमें सन्देश को प्रभावी ढंग से पहुँचाने के लिए कलाकारों द्वारा कुछ पारम्परिक नाटकीय संकेत उपयोग में लाये जाते हैं।
इम नाट्य के मंचन के दौरान चमकदार परिधान और विशाल मुकुट पहने जाते हैं और इन सभी द्वारा कलाकारों को सशक्त तथा सहज लोक चरित्र के रूप में प्रस्तुत किया जाता हैं। कलाकारों द्वारा पहने गए आभूषण नर्म लकड़ी से बनाए जाते हैं, जिन्हें शीशे के और सुनहरे रंग के कागज के टुकड़ों से सजाया संवारा जाता है।
यक्षगान की प्रस्तुति सर्वाधिक अद्भुत विशेषताओं में से एक है। इसमें शास्त्रीय तथा लोक भाषाओं को एक रूप कर देते हैं, ताकि कला के सम्मोहन का एक ऐसा दृश्य बने जो नाट्य विद्या में कला की सीमाओं के पार चला जाए।
(15) भवाई : भवाई गुजरात का प्रसिद्ध लोकनाट्य है। इसका मंचन स्वांग से मिलता जुलता है। इसलिए इसे वेष या स्वांग भी कहते हैं। गुजरात के लोक रंगों से सराबोर भवाई नाट्य संगीत, नृत्य, अभिनय, संवाद, वेशभूषा, बोली यानी पूरा कलात्मक ताने-बाने के साथ लुभावना है। भवाई का कथानक और उसकी प्रस्तुति इसके आकर्षण के मुख्य कारण हैं।
भवाई के रंगमंच पर स्वप्न कथाओं और परियों की कहानियों से लेकर, पौराणिक ऐतिहासिक प्रसंग और आज के हालातों का व्याख्यान भी होता है। इस लोक नाट्य में 9 से 20 कलाकार होते हैं। भवाई लोकनाट्य का आरम्भ सर्वप्रथम चाचर रचना तथा पूजा विधि से किया जाता है। चांचर रचना में देवी के प्रतीक रूप के पास दीपक
तथा मशाल जलाने के बाद माता अम्बिका सहित अन्य देवियों की जय जयकार की जाती है। उसके बाद नाटक मंडली के सदस्यों द्वारा भवाई शुरू किया जाता है। भवाई में उसके मुख्य वाद्य भूंगल बजाकर ग्राम्य देवता को आमंत्रित किया जाता है। भूंगल के साथ तबला, झाँझ, ढोलक आदि वाद्य यंत्रों को नाट्य मंचन के समय बजाया जाता है।
(16) भाओना : यह असम, विशेषकर माजुली द्वीप की लोक नाट्यकला है। इसका उद्देश्य लोगों के बीच मनोरंजन और नाटक के माध्यम से धार्मिक और नैतिक सन्देश प्रसारित करना है। यह सामान्यतः अंकिया नाट और वैष्णव प्रसंगों की प्रस्तुति है। इसके मंचन में सूत्रधार नाटक का वर्णन करता है
और पवित्र ग्रन्थों से छन्द गाता है। गीत और संगीत भी इसके प्रमुख अंग हैं। इस लोकनाट्य में असम, बंगाल, उड़ीसा, वृन्दावन – मथुरा आदि का सांस्कृतिक झलक भी परिलक्षित होती है। इसे 16 वीं शताब्दी की शुरूआत में श्रीमन्त शंकरदेव द्वारा विकसित किया गया था।
(17) रम्मन : उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र का यह एक कर्मकाण्डी नाटक है। यह स्थानीय भुमियाल देवता को समर्पित होता है। यह मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत के रूप में यूनेस्को की प्रतिनिधि सूची में सूचीबद्ध भी है। इस नाटक के मंचन में भण्डारी जाति के लोग नरसिंह
(आधा मानव और आधा शेर) के प्रतीक का पवित्र मुखौटा पहनकर नृत्य करते हुए गीत के माध्यम से सन्देश का सम्प्रेषण करते हैं। इस नाटक के मंचन में मुख्य रूप से भगवान राम की कथाएँ सुनाई जाती है और उसी दौरान समाज को आवश्यक सन्देश भी दे दिया जाता है।
(18) माँच : माँच मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र की लोक नाट्यकला है। प्रारम्भ में पौराणिक कथाओं जैसे महाभारत तथा रामायण पर आधारित थी। बाद में इसे रंगपटल से जोड़ते हुए रूमानी लोक कथाओं को सम्मिलित कर दिया गया। इस विधा की अनोखी विशेषता इसके संवाद होते हैं। जिन्हें रंगत दोहा नामक दोहों के रूप में मंचन के दौरान सम्प्रेषित किया जाता है।
(19) ओजापाली : ओजापाली असम की एक अनोखी वर्णनात्मक नाट्यकला विधा है। जो प्रारम्भिक रूप से मंशा देवी या नाग देवी के पर्व से सम्बन्धित है। इसका कथा वाचन एक लम्बी प्रक्रिया है। जिसके तीन भिन्न भाग होते हैं-
एक बनिया खण्ड, दूसरा भटियाली खण्ड तथा तीसरा देव खण्ड होते हैं। इस नाटक में ओजा मुख्य कथा वाचक कहते हैं तथा पाली मुख्य कथा वाचक के साथ गाने वाले सदस्य होते हैं।
(20) कष्ण अट्टम : यह 17 वीं शताब्दी के मध्य में उत्पन्न केरल की एक रंगारंग नृत्य-नाट्य लोक संचार की कला है। कृष्ण-गिति की कृतियों पर आधारित यह आठ दिनों तक चलने वाला एक आनन्द प्रणय लोक नृत्य-नाट्य है।
इस कला के माध्यम से लगातार आठ दिनों तक भगवान श्रीकृष्ण के लीलाओं का मंचन किया जाता है और इसके माध्यम से समाज को दिया जाने वाला सन्देश भी संचारित किया जाता है। इन सन्देशों में सामाजिक सौहार्द और परहितवाद जैसे सन्देश ही प्रमुख होते हैं।