नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते हैं और आत्मा को अग्नि जला नहीं सकती है। न जल इसे गीला कर सकता है। ना ही वायु इसे सुखा सकता है।
भारतीय साहित्यों की वैज्ञानिकता को जानने के लिए जीवन को दो भागों में बांट कर देखे जाने की आवश्यकता है। एक भाग आत्म तत्व है, जिसे आत्मा कहा जाता है और उसकी जानकारी पा जाना ही जीवन का रहस्य होता है। आत्मा को समझने के लिए स्व का ज्ञान होना आवश्यक है और स्व के ज्ञान के लिए भारत के समस्त साहित्य धोषणा करते हैं कि एक दुनिया व्यक्ति के अंदर है।
दूसरी दुनिया व्यक्ति के बाहर है, जिसे वह बाहर के दृष्टि से देखता है। लेकिन अंदर की दुनिया को जानने के लिए व्यक्ति को अंतर चक्षु को खोलने का प्रयास करना पड़ता है। तब ही उसे आत्मा का ज्ञान हो सकता है। वहीं दूसरा भाग भौतिक दुनिया का है, जो व्यक्ति बाहर से छूकर, देखकर महसूस कर सकता है। यही नहीं उपभोग भी कर सकता है, किन्तु वह जिस परिधान में है, उस परिधान द्वारा ही उन भौतिक वस्तुओं और संसाधान को देख या छू सकता है या उपभोग कर सकता है।
भौतिक जगत के संसाधनों के भी कई रहस्य हैं, जिसके पाठ्यक्रम बनाए गए हैं और इसकी पढ़ाई विद्यालयों, महाविद्यालयों सहित विश्वविद्यालयों में होती है। लेकिन आत्मा के ज्ञान के उत्कर्ष तक पहुंचने के लिए भारतीय साहित्यों का अध्ययन बहुत आवश्यक है। क्योंकि भारतीय साहित्यों में बताए गए मार्ग के अनुसार ही आत्मा के ज्ञान को समझा जा सकता है।
जिस प्रकार पानी के बूंद का अंतिम लक्ष्य सागर होता है। उसी प्रकार आत्मा का अंतिम लक्ष्य परमात्मा में मिल जाना होता है। लेकिन इस प्रक्रिया में कई पड़ाव होते हैं, जिसको पार करके परमात्मा में विलय करना होता है। उसी पथ को दिखाने का कार्य भारतीय शास्त्र करते हैं।
श्रीमद् भगवद् गीता – सारे हथियार-तलवार आग्नेयास्त्र, वर्षा के अस्त्र, चक्रवात आदि आत्मा को मारने में असमर्थ हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि आधुनिक आग्नेयास्त्रों के अतिरिक्त मिट्टी, जल, वायु, आकाश आदि के भी अनेक प्रकार के हथियार होते थे। यहाँ तक कि आधुनिक युग के नाभिकीय हथियारों की गणना भी आग्नेयास्त्रों में की जाती है. किन्तु पूर्वकाल में विभिन्न पार्थिव तत्त्वों से बने हुए हथियार होते थे।
आग्नेयास्त्रों का सामना जल के (वरुण) हथियारों से किया जाता था, जो आधुनिक विज्ञान के लिए अज्ञात हैं। आधुनिक विज्ञान को चक्रवात हथियारों का भी पता नहीं है। जो भी हो, आत्मा को न तो कभी खण्ड-खण्ड किया जा सकता है, न किन्हीं वैज्ञानिक हथियारों से उसका संहार किया जा सकता है, चाहे उनकी संख्या कितनी ही क्यों न हो।
मायावादी इसकी व्याख्या नहीं कर सकते कि जीव किस प्रकार अपने अज्ञान के कारण उत्पन्न हुआ और तत्पश्चात् माया की शक्ति से आवृत हो गया। न ही आदि परमात्मा से जीवों को विलग कर पाना सम्भव था, प्रत्युत सारे जीव परमात्मा से विलग हुए अंश हैं। चूँकि वे सनातन अणु-आत्मा हैं, अतः माया द्वारा आवृत होने की उनकी प्रवृत्ति स्वाभाविक है और इस तरह वे भगवान् की संगति से पृथक् हो जाते हैं,
जिस प्रकार अग्नि के स्फुलिंग अग्नि से विलग होते ही बुझ जाते हैं, यद्यपि इन दोनों के गुण समान होते हैं। वराह पुराण में जीवों को परमात्मा का भिन्न अंश कहा गया है। भगवद्गीता के अनुसार भी वे शाश्चत रूप से ऐसे ही हैं। अतः मोह से । मुक्त होकर भी जीव पृथक् अस्तित्व रखता है, जैसा कि कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिये गये उपदेशों से स्पष्ट है। अर्जुन कृष्ण के उपदेश के कारण मुक्त तो हो गया, किन्तु कभी भी कृष्ण से एकाकार नहीं हुआ।