कवि रमेशराज
धीरे-धीरे जिस पाश्चात्य संस्कृति का शिकार हमारा समाज होता जा रहा है, उसके दुष्परिणाम नारी पर अत्याचारों की बढ़ोत्तरी के रूप में सर्वत्र दृष्टिगोचर हो रहे हैं। शहर ही नहीं गाँव-गाँव तक आज स्त्री जाति असुरक्षित और भयग्रस्त है। भय और असुरक्षा के कारण है- गली-गली बढ़ते कामासुर। कामासुरों को किसी और ने नहीं, पाश्चात्य-सभ्यता के पोषकों और जन-शोषकों ने पैदा किया है।
पाश्चात्य सभ्यता के फैलाव में कोई और नहीं, हमारे राष्ट्र के वे नायक हैं, जो अपनी अकूत और काली कमायी के जरिए टी.वी. चैनल्स और अखबारों के मालिक बनकर समाज के सम्मुख सामाजिक-विघटन और सैक्स को परोस रहे हैं। सरकार के जनहित कार्यक्रमों में से एक प्रमुख कार्यक्रम बन गया है- शराब की दुकानें मोहल्ले-मोहल्ले खुलवाना। शराब में धुत, विचारहीन, भोगविलासी वर्ग क्या करेगा। वह हमारी बहिन-बेटियों को छेड़ेगा, सैक्स भरी फब्तियाँ कसेगा, बलात्कार करेगा।
संत रविदास, महात्मा फूले, स्वामी विवेकानंद, संत कबीर, गुरु नानक जैसे महापुरुषों के देश में आज हर एक मिनट बाद नारी बलात्कार, छेड़खानी या बलात्कार के बाद मौत का शिकार हो रही है और इस ज्वलंत समस्या पर देश की हर सरकार चैन की नींद सो रही है। जनता के दुःखदर्दों में शरीक होने का ढोंग रचने वाले राजनेताओं में ऐसे अनेक नेताओं के अब चेहरे उजागर होने लगे हैं, जिनका हाथ चकलाघरों के साथ है। सैक्स रैकेट के संचालक ऐसे नेता नारी सशक्तिकरण की बात करते हुए किसी न किसी नारी का चीरहरण करने में लगे हैं।
कथित प्रगतिशीलता के इस दुष्चर्क में नारी सबला से अबला होती जा रही है। उसे अबला बनाने में पुरुष-सत्ता का बहुत बड़ा हाथ है। किन्तु इन सारी त्रासद स्थिति के लिये पुरुष समाज पर ही दोष मढ़ा जाना चाहिए? इस ज्वलंत सवाल को ‘भारत की महान वीरांगनाएँ’ नामक प्रस्तुक के लेखक आचार्य श्रीराम शर्मा की प्रकाशकीय में उठाया जाता है और इस सवाल का उत्तर कुछ इस प्रकार आता है – ‘‘नारी अपनी वर्तमान अधोगति के लिए बहुत कुछ स्वयं उत्तरदायी है।
संसार की नारियों का इतिहास इस बात का प्रबल प्रमाण है कि मातृ शक्ति में अनंत शक्तियाँ निहित हैं। वह किसी बात में पुरुषों से कम नहीं है। वीरता, धीरता, शौर्य, पराक्रम, शासन-प्रशासन, त्याग, तप, बलिदान, विद्वता, शोध, अविष्कार आदि जीवन के विविध क्षेत्रों में मातृशक्ति ने कीर्तिमान स्थापित किये हैं। लज्जा, कोमलता, भीरुता आदि नारी के आभूषण हैं, किन्तु जब-जब आवश्यकता पड़ी है, उसने अपने इस बानक को उतार फैंका है और ज्वाला बनकर प्रकट हुई है।’’
नारी को ज्वाला में तब्दील होते ‘दामिनी-प्रकरण’ पर जंतर-मंतर पर पिछलों दिनों देखा गया। नारी-शक्ति के सम्मुख केन्द्र सरकार की सारी चूलें हिली भी थीं और नारी के पक्ष में नये कानून भी बने। इन्हीं कानूनों का सहारा लेकर आज नारी ‘बलात्कार-छेड़खानी’ जैसे मुद्दों पर मौन न रहकर मुखर है।
किन्तु काँटे का सवाल यह भी है कि इस जगी नारी-शक्ति के बीच ‘शराब के ठेके’,
विज्ञापन और फैशन शो में बढ़ता नारी का अश्लील अंग प्रदर्शन पिक्चर हॉलों में दिखाये जाने वाले ब्लू फिल्मों के टुकड़े, या नारियों द्वारा संचालित गुप्त चकलाघर’ जब तक नारी-शक्ति के विरोध के सवाल बनकर सुर्खियों में नहीं आते, तब तक न अत्याचार, व्यभिचार को समाप्त किया जा सकता है और न बलात्कार से मुक्ति पायी जा सकती है। नारी प्रगतिशील, विचारशील बने, लेकिन अंगों की नुमाइश को बन्द करे तो कामासुर का आतंक स्वतः समाप्त होने लगेगा।