कामवाली बाई के प्रशिक्षण का पहला दिन

लघुकथा में कथाकार ने कामवाली बाई के माध्यम से खींचा है श्रम और बचपन के बीच रेखा

by Bhanu Pratap Mishra

रशीद ग़ौरी

कामवाली बाई आज फिर देर से आई थी। उसकी इस लेट लतीफ़ी से ज़ेबा मेम बहुत परेशान थी। इस वजह से उन्हें कभी आफिस जाने में देरी हो जाती थी। उन्हें बड़ी झुंझलाहट होती परंतु वे जानती थीं कि अगर गुस्से में ज्यादा कुछ कह दिया तो कामवाली बाई नाराज़ हो कर काम ही छोड़ कर ना चली जाये।

उसे ही भारी मुसीबत हो जायेगी। इस जैसी ईमानदार और सीधी – सादी दूसरी कामवाली बाई का मिलना भी बड़ा मुश्किल है। बाई में बस एक ही कमी है। कभी – कभार लेट आती है और आते ही कोई ना कोई घरेलू कहानी सुनाकर निरुत्तर कर देती है। ज़ेबा मेम उसकी बातों की पीड़ा को समझ कर उसे क्षमा कर देती हैं। इंसान की कई मज़बूरियां होती हैं। वे जानती समझतीं हैं। आज कामवाली बाई के साथ एक छोटी सी बच्ची भी आई थी।

ज़ेबा मेम के पूछने पर बच्ची का अपनी बेटी के रूप में परिचय दिया और बताया कि घर के काम-काज़ सिखाने के लिए बेटी को साथ लाई है। बच्ची की तीन – चार साल की उम्र को देखते हुए ज़ेबा मेम ने नाराज़गी भरा एक लम्बा सा उपदेश बाई पर जड़ दिया था। कामवाली बाई निर्लिप्त सी चुपचाप सुनती रही। इतना सुनने के पश्चात, कामवाली बाई केवल मुस्करा भर दी।

उसने, हमेशा नीचे झुकी – झुकीं रहने वाली अपनी पलकों को धीरे से ऊपर उठाया और देखा। मानों, आंखें बहुत कुछ कहना चाहतीं हों। पर दूसरे ही पल नज़रें वापस फ़र्श पर टिक गईं। पौंछा लगाते हुए बाई ने अपनी बेटी की ओर देखा। वह मासूम अपने नन्हें हाथों में कपड़े का एक टुकड़ा लिए, मां की नक़ल करने की कोशिश कर रही थी। आज, उसके प्रशिक्षण का पहला दिन था।

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