भानु प्रताप मिश्र
इतिहास के पन्नों पर हमें मिलता है कि विश्व के सभी देशों में से भारत में सबसे पहले सभ्यता का विकास हुआ था। भौतिक सम्पदा से लेकर बौधिक सम्पदा तक को मानव – जीवन में उपयोग का व्यवस्थित ढंग की प्रणाली भारत द्वारा विश्व को दिया गया। यही कारण है कि भारत को विश्व गुरु भी जाता है। इतिहास में इसका उल्लेख मिलता है कि विश्व के सबसे पुराने विश्व विद्यालयों में से भारत का तक्षशिला विश्व विद्यालय एक था।
इतिहासकार कहते हैं कि वैदिक काल से सातवीं शताब्दी तक हमारे देश में शिक्षा की प्रणाली पूर्णतः गुरुकुल पर निर्भर हुआ करती थी। उसके पश्चात् बाह्य आक्रमण से संस्कृति में धीरे-धीरे बदलाव हुआ और उसके साथ ही शिक्षा की प्रणाली को विद्यालीन और विश्व विद्यालीन शिक्षा प्रणाली में परिवर्तित किया गया, जिसके साथ-साथ हमारी सभ्यता भी बदलती गयी और हम भी पूरी तरह बदलते गये।
पहले शिक्षा की प्रणाली में अर्थ का होना आवश्यक नहीं होता था। इस विषय पर कक्षा चौथी की एक बच्ची का प्रश्न कुछ इस तरह होता है, हम विद्यालय क्यों जाते हैं ? इस पश्न का उत्तर जानने के लिए हमें पूर्णतः भारतीय इतिहास पढ़ने की आवश्यकता है। क्योंकि आज शिक्षा का पूर्णतः व्यवसायीकरण हो चुका है। यहां यह बताना उचित प्रतीत होता है कि आज विश्व का सबसे बड़ा व्यवसाय शिक्षा ही बन कर उभरा है।
विश्व के सकल घरेलू उत्पाद की राशि का 25 से 30 फीसदी राशि शिक्षा पर लोगों द्वारा खर्च किया जाता है। इसलिए यह बहुत बड़ा व्यवसाय के रूप में विश्व के पटल पर उभरा है। यही कारण है कि देश के बहुत बड़े-बड़े औद्योगिक घराने जैसे टाटा, बिडला, जिन्दल इत्यादि कई औद्योगिक घराने शिक्षा नामक उद्योग में पैसा लगाना अधिक सुरक्षित समझ कर इस उद्योग में बड़ी तेजी के साथ उत्तर रहे हैं।
आज की हमारी शिक्षा प्रणाली पूर्णतः आयातीत है। क्योंकि हमारी शिक्षा प्रणाली हजारों साल की सफर के बाद जिम्मेदार नागरिक बनाने की प्रक्रिया से कुछ दूर जाकर खड़ी हो चुकी है। आज बहुत बड़े-बड़े विद्यालय, महाविद्यालय, तकनीकी विद्यालय इत्यादि सभी खुल चुके हैं। जिसमें शिक्षा ग्रहण करने के बाद समाज के हर व्यक्ति का उद्देश्य मात्र अर्थोपार्जन होता है।
इसमें न तो नैतिक मूल्यों की कोई स्थान होती है, न ही नैतिकता का पाठ्यक्रम, आज हमारे देश में हर क्षेत्र से नैतिक अवमूल्यन की घटना बड़ी तेजी से सामने आ रही है। जैसे राजनीति, चिकित्सा, विज्ञान एवं तकनीकी, उद्योग, कृषि व स्वयं सेवा के क्षेत्र से लेकर तमाम सभी क्षेत्रों का नैतिक अवमूल्यन इतने तेजी से हुआ है कि अर्थोपार्जन ही एकमात्र लक्ष्य वर्तमान परिप्रेक्ष्य लोगों का होता है।
उदाहरण स्वरूप यह कहा जा सकता है कि शासन का राजनैतिक मापदंड जितना ऊंचा मौर्यकाल में था, उतना ऊंचा राजनैतिक मापदंड आज के भारत का नहीं है। कारण इसका यह है कि जब हमारी शिक्षा प्रणाली ही, हमें मात्र अर्थोपार्जन सीखाती है, तो हम नैतिकता की सारी पहलुओं को ताक पर रख कर कार्य करते हैं। इसके लिए हमें सिर्फ बाजारू सोच विकसित करने वाली शिक्षा प्रणाली की ओर ध्यान एकाग्र करना होगा।
आज हम भले ही बड़े तेजी से शिक्षित हो रहे हैं और बड़े गर्व के साथ कह रहे हैं कि हमारा देश उन विकासशील देशों में से है, जो बहुत तेजी से शिक्षित हो रहा है। लेकिन साथ ही हमारे समक्ष भ्रष्टाचार जैसी बहुत बड़ी-बड़ी समस्याएं उभर कर आ रहीं हैं। इसके लिए सिर्फ हम राजनेता, उद्योगपति, अधिकारी और कर्मचारियों को जिम्मेदार नहीं मानते सकते।
क्योंकि सिर्फ कुछ वर्ग को जिम्मेदार मानने से हमारे अन्दर की भ्रष्टाचार समाप्त नहीं होगा। क्योंकि हमारी मूल शिक्षा प्रणाली ही जब हमें येन केन प्रकारेण अथोपार्जन पर आधारित करती है। तो इसलिए हमारा एकमात्र उद्देश्य यही होता है कि हम अधिक से अधिक अर्थोपार्जन कर सकें। जिसके लिए हमें तमाम हथकंडों को अपना कर भ्रष्टाचार के उन नये आयामों छूना पड़ता है।
यदि हमें इन सारी विसंगतियों से निजात पानी है, तो हमें वही शिक्षा प्रणाली लानी पड़ेगी, जहां गुरुकुल में राजा और रंक दोनों तरह के विद्यार्थियों के लिए एक ही जैसी शिक्षा की व्यवस्था थी। शिक्षा के पद्धतियों में राजा या रंक के लिए अलग-अलग सुविधाएं उपलब्ध कराना या अलग-अलग प्रकार के लोगों के लिए अलग-अलग तरह की शिक्षा पद्धति का होना हमारे सोच को बदलता है।
शिक्षा तकनीकी या चिकित्सा आदि कई क्षेत्रों की हो सकती है, लेकिन अलग-अलग व्यवस्थाओं का होना घातक है, जो कि समाज में बहुत तेजी से विषमता ला रहा है। यदि ’समाज के विषमताओं को दूर करना है, तो हमें शिक्षा के व्यवसायी करण पर तत्काल रोक लगाने की आवश्यकता है। ताकि छात्रों को बदलते परिदृश्य के साथ अच्छी से अच्छी क्षेत्र की शिक्षा दी जा सके। तभी वह प्रश्न पूरा होगा और तब हर छात्र यह समझ सकेगा कि विद्यार्थी विद्यालय क्यों जाता है ?
शिक्षा ग्रहण करने के लिए विद्यालय नहीं वरन उस विषय के साहित्य की आवश्यकता होती है। साथ ही विषय को आत्मसात् कराने वाले गुरू की भी आवश्यकता होती है। आज हमें आवश्यकता इस बात की है कि हम हर विद्यार्थी को समझा सकें कि पुस्तक और विद्यालय में क्या अन्तर होता है ? वहीं शिक्षक और गुरू में भी अंतर के परिष्करण की भी आवश्यकता है।