अंतरात्मा परमात्मा का प्रतीक-प्रतिनिधि

अंतरात्मा करता है ब्रमाण्ड में परमात्मा का प्रतिनिधित्व

by Bhanu Pratap Mishra

मनुष्य में अंतरात्मा वह अवयव है, जो संवेदना, स्नेह, प्रेम, घृणा, ममता आदि से कुछ अलग होता है। अंतरात्मा मनुष्य में चेतना उत्पन्न करता है, किन्तु मन एक स्नेह, प्रेम, संवेदना, घृणा, लालच आदि का प्रतिनिधित्व करता है। वहीं अंतरात्मा मनुष्य में चेतना भरने का कार्य करता है, जिससे मनुष्य गलत और सही में अंतर कर पाता है। अतः चेनता ही मनुष्य के अंतरात्मा से उत्पन्न ज्ञान के आधार पर यह निर्णय लेता है कि क्या उचित और अनुचित है। अंतरात्मा से उत्पन्न चेतना ही मनुष्य को स्व से भी परिचित कराने का कार्य करता है।

मनुष्य में जहाँ शारीरिक-मानसिक स्तर की अनेक विशेषताएँ हैं। वहीं उसकी वरिष्ठता इस आधार पर भी है कि उसमें अंतरात्मा कहा जाने वाला एक विशेष तत्त्व पाया जाता है। उसमें उत्कृष्टता का समर्थन और निकृष्टता का विरोध करने की ऐसी क्षमता है, जो अन्य किसी प्राणी में नहीं पाई जाती। जीव-जंतुओं में उनकी इच्छा या आवश्यकता की पूर्ति के निमित्त ही कई प्रकार की प्रेरणाएँ उठती हैं।

इनमें उन्हें नीति अनीति से कोई मतलब नहीं रहता। उदारता नाम की वस्तु मात्र मादाओं में उस सीमा या समय तक पाई जाती है, जब तक कि उनकी संतानें असमर्थ रहती या स्वावलंबी नहीं बनतीं। इस अवधि के समाप्त होने पर उनका ममत्व समाप्त हो जाता है। यौन कार्य के समय भी नर-मादा में कुछ आकर्षण या सहयोग जैसा सौजन्य उभरता है। आवश्यकता पूर्ण होने पर वह भी आमतौर से विस्मृत होते देखा गया है।

जोड़ा मिलकर देर तक साथ-साथ रहने वाले तो कुछेक पक्षी ही पाए गए हैं। मनुष्यों में स्नेह-सौजन्य, औचित्य, न्याय एवं उदारता, सद्भावना से भरे गुण पाए जाते हैं। ऐसा किसी स्वार्थ या लोभ से प्रेरित होकर नहीं, वरन अंतराल की गहरी परतों से उद्भूत होता और इतना प्रखर रहता है कि आदर्शवादिता के निमित्त कष्ट सहने या घाटा उठाने के लिए भी तत्परता बरती जा सके। यही अंतरात्मा है, जो सत्कर्म करने पर भीतर ही भीतर प्रसन्न होती, गर्व-संतोष प्रकट करती हुई देखी जाती है।

अनीति अपनाते समय अंतर्द्वंद्व विक्षुब्ध होता है और आत्मप्रताडना की पीड़ा अपने आप ही सहनी पड़ती है। भर्त्सना, प्रताड़ना का भय न हो, तो भी दुष्कर्म करते समय भीतर जी काटता कचोटता है, यही अंतरात्मा है। उसका प्रोत्साहन यह रहता है कि आदर्शवादिता अपनायी जाए और दूसरों के सामने अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किए जाएँ।

निष्कर्ष – मनुष्य की अंतरात्मा से उत्पन्न चेतना मनुष्य यदि मनुष्य के मन के ऊपर अपना प्रभाव बनाने में सफल हो जाता है, तो मनुष्य के अंदर स्व की जानकारी लेने की इच्छा शक्ति भी प्रबल हो जाती है। यह अवस्था मनुष्य में तब जाग्रत होता है, जब वह योग के माध्यम से मन पर नियंत्रण करना सीख जाता है या मनुष्य परमात्मा के प्रति समपर्ण का भाव उत्पन्न कर ले तो वह स्थिति भी मनुष्य को मन पर नियंत्रण करने में सहायक होता है।

अतः अंतरात्मा से उत्पन्न चेतना मनुष्य को यह सीख भी देने का कार्य करता है कि मनुष्य को मिला परिधान अन्य जीवों से भिन्न इसलिए है कि वह मस्तिष्क पर मन के नियंत्रण से अलग अंतरात्मा से उत्पन्न चेतना का नियंत्रण बना सके। जिससे वह सत्य को जानने का प्रयास करे। तब ही वह स्व को जानने की प्रक्रिया में जा सकता है या स्व को जान सकता है। मनुष्य में जीवन से जुड़े प्रश्नों की उत्पत्ति भी तब ही मनुष्य में होती है, जब उसके अंतरात्मा से उत्पन्न चेतना उसके मन पर नियंत्रण करने में सक्षम हो।तब जाकर मनुष्य की अंतरात्मा जाग्रत होती है और वह सही-गलत में अंतर करने में सक्षम हो पाता है। मनुष्य में अंतरात्मा की चेतना ही वह अवयव है, जो मनुष्य को भौतिक जगत से परे अलौकिक जगत की ओर भी ले जाने का कार्य करता है।

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