राजनीति में जनतंत्र का स्थान

जनतंत्र का बदल रहा है स्वरूप

by Bhanu Pratap Mishra

भानु प्रताप मिश्र

आजादी के कई दशकों बाद देश की राजनीति में हिन्दुत्व के नाम पर वोटों का ध्रुवीकरण हो या किसी अन्य समुदाय का तुष्टिकरण, भारतीय राजनीति में यह घटना पहली बार घटित हुई है। आजादी के बाद जाति और समुदायों के नाम पर लम्बे समय से ही राजनीति होती आ रही है। समस्याओं पर आधारित राजनीति की धुरी भारत में न होने का कारण उच्च मानदंडों के राजनेताओं की कमी और सामाजिक बनावट मुख्य रही है।

आजादी के बाद देश को सुचारू रूप से संचालन के लिए हर पद पर भारतीय नागरिक को पदस्थ किया गया। भारतीय संविधान में उल्लेखित तीन स्तम्भों पर भारतीय नागरिकों को या तो चुनाव के माध्यम से या परीक्षाओं के माध्यम से पदस्थ किया जाना तय किया गया। जिससे कि जनता का, जनता के लिए, जनता के द्वारा जनतंत्र स्थापित किया जा सके।

लेकिन समाज में घटती नैतिकता और बढ़ती धन की लोलुपता का परिणाम आज धीरे-धीरे भयावह समस्या के रूप में देश के समक्ष आकर खड़ा होते जा रहा है। इसका मुख्य कारण समाज में धन के प्रति आसक्ति का बढ़ने को माना जा सकता है। समाज में बढ़ती धन की आसक्ति का मुख्य कारण भौतिकवाद का प्रसार और बाजारों में आमूलचूल परिवर्तन है।

बढ़ती सुविधाओं को बाजार के रूप में परिवर्तित करने के कारक हों या आवश्यकताओं में परिवर्तन के मूल को बाजार की दिशा में मोड़कर अलग-अलग सुविधाओं को समाज के बीच माँग के रूप में स्थापित किया जाना। इन सभी क्रियाओं के कारण ही समाज के लोगों में धन की आसक्ति बढ़ी। जैसे यदि गति बढ़ी, तो उस बढ़ी हुई गति को समाज के बीच माँग के रूप में स्थापित करने से एक नये प्रकार के बाजार का जन्म हुआ।

अर्थात् मानव आज अपने कार्य क्षमता को बढ़ाने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के वाहनों को खोजा। जिससे उसकी गति तो बढ़ी, किन्तु आज इसमें से बहुतेरे वाहन ऐसे हैं, जो अपने वैभव को समाज में प्रदर्शित करने के लिए लोगों द्वारा खरीदे जाते हैं। अर्थात् आवश्यकता में वृद्धि ही समाज को धन की लोलुपता की ओर आकर्षित करने का कार्य करता है। साथ ही संचार के माध्यम को सरल बनाकर उसका अलग से बाजार स्थापित करना आदि।

इसका अर्थ यह है कि मनुष्य की मूल आवश्यकताएं उसको धन की लोलुपता की ओर नहीं ले जाती हैं। बल्कि समाज में अपने वैभव के प्रदर्शन हेतु उपयोग होने वाली वस्तुओं का बाजार ही आज के समाज में धन की लोलुपता के कारण हैं। अतः आवश्यकताओं को बड़ा स्वरूप देने के पहली चरण में नई प्रकार की खोज को समाज के बीच बाजार स्थापित करने का कार्य किया जाता है।

जिसके दूसरे चरण में आवश्यकताओं के परिवर्तन पर जोर डाला जाता है। जिसका मूल उकरण वस्तुओं का विज्ञापन होता है। उसके पश्चात् समाज में माँग पैदा होती है और उसके बाद उस माँग की पूर्ति के लिए अलग प्रकार के बाजार का निर्माण होता है। उसके पश्चात् समाज का हर सदस्य उस बाजार का हिस्सा बन जाता है। जिसकी पूर्ति के दौड़ में समाज के बीच नैतिक मूल्यों का अवमूल्यन तेजी से हुआ है।

चूँकि इसी समाज से संविधान में उल्लेखित तीन स्तम्भों पर या तो चुनाव के माध्यम से या परीक्षाओं के माध्यम से लोगों का चयन होना या कहें तो स्थापित किये जाने की व्यवस्था बनायी गयी है। अब प्रश्न यह उठता है कि समाज में नैतिक मानदंडों का स्वरूप यदि बदला हुआ है तो उन कुर्सियों पर बैठने वाले लोगों से नैतिकता के उच्च मानदंड को बनाये रखने की आशा को, अपने आप को झूठा दिलासा देना कहा जा सकता है।

यही कारण है कि आज राजनीति में अपने कार्यों को अलग-अलग ढंग से परिभाषित किया जा रहा है। वोटों के ध्रुवीकरण का कार्य भारतीय राजनीति का वैसे तो पुराना खेल रहा है। लेकिन वर्तमान में लोकतंत्र का एक और भिन्न चेहरा देखने को मिला। चुनाव हो या अन्य पदों के लिए नियुक्तियाँ, सभी स्थानों पर धन का खर्च करना अपने गर्व का प्रतीक चिह्न भी बन चुका है।

यही नहीं कानूनी रूप से अपराध होने के बाद भी समाज में बड़े गर्व से इस पर चर्चा भी की जाने लगी है। समाज का यह उदार चेहरा ही समाज के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती है। जिसको समसामयिक सामाजिक उदारता माना जा रहा है। इसका उदाहरण पाँच राज्यों में अभी-अभी सम्पन्न हुए विधान सभा चुनाव से लिया जा सकता है। इस चुनाव में हर बूथ पर पंद्रह से पच्चीस हजार रूपये का लिफाफा राजनैतिक दलों द्वारा पहुँचाया गया।

जिसमें से बूथ के ऐजेंट को देने से लेकर मतदाताओं को पैसा देने व मतदाता को बूथ तक ले जाने एवं बूथ से वापस घर तक ले आने आदि सभी प्रकार के खर्च के लिए वे लिफाफे राजनैतिक दल के कार्यकर्ताओं तक पहुँचाये गये। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि समाज का हर तबका इस गैर कानूनी कार्य का हिस्सा है। जबकि यह आदर्श आचार संहिता का खुला उल्लंघन है।

यदि इसकी चर्चा समाज में खुलकर की जा रही है, तो इससे यह स्पष्ट होता है कि इसकी सामाजिक स्वीकार्यता हो चुकी है। इस पर यह भी निर्भर करता है कि हम जिस समाज में रहते हैं। वह कितना न्याय प्रिय और तर्क संगत बनता जा रहा है। आवश्यकता इस बात की है कि समाज में घटती न्याय प्रियता और बढ़ते बाजारवाद पर केन्द्रित विमर्श को आरंभ किया जाय।

अन्यथा भारतीय संविधान द्वारा स्थापित तंत्र के तीनों स्तम्भों से ईमानदारी की अपेक्षा की चर्चा अपने आप को झूठा दिलासा दिलाना है। साथ ही बाहर से बहुत ईमानदार दिखने वाला लोक चर्चा के अनुसार चौथा स्तम्भ भी, सिर्फ चर्चाओं में ईमानदार रहेगा !

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