शिकागो का सर्व धर्म परिषद् और युगपुरूष स्वामी विवेकानंद का अभ्युदय

by Bhanu Pratap Mishra

भानु प्रताप मिश्र

वर्तमान शिक्षण प्रणाली में अधिगम (सीखने की प्रक्रिया) के व्यवस्था को तीन स्तर पर विभाजित किया गया है। अधिगम के पहले स्तर को स्मरण स्तर कहा जाता है, तो वहीं दूसरे स्तर को अवबोध स्तर कहा जाता है और अधिगम में सबसे महत्त्वपूर्ण तीसरा स्तर होता है, जिसे चिन्तन स्तर कहा जाता है। यदि हम अधिगम के परिभाषा पर ध्यान केन्द्रित करते हैं, तो मिलता है कि अधिगम जीवन भर प्रकृति से सीखते रहने की प्रक्रिया को कहा जाता है। इसी विषय को वर्तमान शैक्षणिक व्यवस्था में कुछ इस प्रकार से देखा जा सकता है कि विद्यार्थी द्वारा कक्षा में उत्तीर्ण हो जाने की प्रक्रिया को संकुचित स्तर पर अधिगम माना गया है।

आज इक्कीसवीं शताब्दी में आकर तमाम अध्ययन और शोध करने के उपरान्त् पूरे विश्व को यह समझ में आया है कि स्कूली शिक्षा से चेतना के उत्कर्ष को आकलित नहीं किया जा सकता है। चेतना तो चिन्तन और आत्म साक्षात्कार से निकलने वाला वह मोती है। जो कि किसी पुस्तक के अध्ययन से नहीं अपितु स्व परिचय के सिद्धांत अर्थात् स्वयं से परिचित होने के सिद्धांत से मिलता है और वैदिक काल से ही भारत के दर्शन का अभिन्न अंग रहा स्व परिचय का सिद्धांत, जो कि पूरे विश्व के समक्ष चेतना के उत्कर्ष को प्रदर्शित करता रहा है।

भले ही वह चेतना साहित्यों के माध्यम से क्यों न प्रदर्शित हुआ हो, क्योंकि यह भूमि कोई साधारण भूमि नहीं है। इस भूमि पर युगपुरूष अवतार लेते रहे हैं, जिन्होंने मानवीय जीवन को उत्कृष्ट दर्शन देने के साथ-साथ मानव को दर्शन के विषय पर अन्तर्मुखी होने का मार्ग दिखाया है। उसमें युगपुरूष स्वामी विवेकानंद का भी नाम प्रमुखता से लिया जाता है। स्वामी जी के विषय में एक कहानी बहुत प्रचलित है कि स्वामी जी जब संसार से परिचित होने के लिए निकले, तो कई मठों और मंदिरों में वे गये और उनका हर मंदिर और मठ के पुजारी से एक ही प्रश्न रहता था कि क्या आपने भगवान को देखा है ?

इस प्रश्न के बाद सभी पंथ के पुजारी हाथ खड़े कर देते, लेकिन जब वे रामकृष्ण परमहंश से मिले और उनसे उन्होंने पूछा कि आप किसकी पूजा करते हैं ? तो उनका उत्तर था कि मैं माँ काली की पूजा करता हूँ। फिर स्वामी जी ने अपने गुरू अर्थात् परमहंश जी से पूछा कि क्या आपने माँ काली को देखा है, तब उन्होंने कहा कि हाँ, मैंने देखा है और हम माँ बेटा एक साथ बैठकर भोजन करते हैं।

तब स्वामी जी ने उनसे कहा कि क्या आप मेरी मुलाकात उनसे करवा सकते हैं ? तो उन्होंने सहजता से उत्तर दिया कि हाँ तुम्हारी भी मुलाकात करवा सकता हूँ, कुछ समय बाद उन्होंने स्वामी जी का माँ काली से साक्षात्कार भी कराया। उसके बाद स्वामी विवेकानंद रामकृष्ण परमहंश के शिष्य बन गये। अर्थात् भारत के दर्शन का महत्त्वपूर्ण अंग तर्क और प्रश्न रहा है, जो कि वैदिक काल के भारतीय साहित्यों में भी उपलब्ध है और व्यक्ति के मन में उठे ऐसे प्रश्न व आन्तरिक कौतुहल को शास्त्रार्थ के नाम से जाना जाता है।

इसी कारण से कहा जाता है कि भारत कोई भू-भाग का नाम मात्र नहीं है। यह वैदिक चिन्तन से निकला सांस्कृतिक वैशिष्ट से संयुक्त लोगों की आस्था का केन्द्र और आश्रय स्थली है   तथा यह धरा मानव जाति को अधिगम की प्रक्रिया में दर्शन के उत्कर्ष को प्राप्त करने हेतु शोध के लिए चक्षु प्रदान करता है और इसी चक्षु से स्वामी विवेकानंद ने शिकागो के सर्व धर्म परिषद् में लोगों को परिचित कराने का कार्य किया था। शिकागो के सर्व धर्म परिषद् में स्वामी विवेकानंद द्वारा जो संभाषण दिया गया था।

उसको पंडित सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला व श्री दिनेशचन्द्र गुह द्वारा हिन्दी में रूपातंरित किया गया और रामकृष्ण मिशन के प्रयास से स्वामी जी का वह संभाषण पुस्तकों के रूप में भी उपलब्ध है। वे पुस्तकें कर्मयोग और राजयोग के नाम से बाजार में उपलब्ध हैं। राजयोग को पढ़ने से यह मिलता है कि स्वामी विवेकानंद द्वारा शिकागो के सर्व धर्म परिषद् में पातंजल योगसूत्र की पूर्ण व्याख्या की गयी थी, जो कि चेतना को जागृत अवस्था में ले जाने की एक साधना है और इसी साधना के माध्यम से आत्म साक्षात्कार का मार्ग खुलता है।

क्योंकि पातंजल योगसूत्र एक ऐसा माध्यम है, जो मनुष्य शरीर में स्थित कुंडलिनी शक्ति के चक्र को जागृत अवस्था में ले जाने का कार्य करता है। भारत के साहित्यों में आत्म साक्षात्कार के लिए कई अन्य साधनाओं का उल्लेख भी मिलता है, लेकिन स्वामी जी ने इसी सूत्र को इसलिए बताया होगा कि यह साधारण साधना है और इस साधना को साधारण व्यक्ति भी सरलता से साध सकता है। इसके लिए जो नियम हैं, वे भी योग से संबंधित नियम है। हाँलाकि आज पूरा विश्व पातंजल योगसूत्र को मैडिटेशन के रूप में अपने जीवन में अंगीकार कर रहा है।

भारत के दर्शन शास्त्र का एक साहित्य कठोपनिषद् में यम और नचिकेता के संवाद से यह निकल कर आता है कि मृत्यु परिधान परिवर्तन की एक प्रक्रिया मात्र है और भारत के एक दर्शन शास्त्री आचार्य रजनीश यह कहते हैं कि मृत्यु की प्रक्रिया में यदि व्यक्ति चेतन अवस्था में प्रवेश कर लेता है, तो उसे मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। इसलिए यहाँ यह उल्लेख करना आवश्यक हो जाता है कि स्वामी विवेकानंद को तो आत्म साक्षात्कार उनके गुरू रामकृष्ण परमहंश ने करवाया था।

लेकिन सामान्य व्यक्ति को वैसा गुरू मिलना संभव नहीं है। इसलिए सामान्य व्यक्ति हेतु आत्म साक्षात्कार का मार्ग पातंजल योगसूत्र ही साधारण रूप में खोल सकता है, इसे स्वामी जी भलि भाँति जानते थे। यही कारण था कि उन्होंने शिकागो के सर्व धर्म परिषद् में भारतीय दर्शन को समझने के लिए जिस चेतना की आवश्यकता होती है। उस चेतना को लोगों में जागृत करने के माध्यम को बताया। ताकि लोगों में वह चेतना जागृत हो और लोग शास्त्रार्थ अर्थात् शास्त्र का सही अर्थ निकाल सकें।

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