पं. श्रीराम शर्मा आचार्य – जीभ सब के मुख में है और बोलते भी सभी हैं, पर बोलना किसी-किसी को ही आता है। वाणी का उपयोग कोई-कोई ही कर पाते हैं। तत्व-वेत्ताओं ने शब्द को शिव और वाणी को शक्ति कहा है। इसका अनुग्रह जिस पर हो उसे अमृतत्व उपभोक्ता ही कहना चाहिए।
शब्द, कंठ और जिह्वा का केवल उच्चारण भर ही नहीं और न जीभ कैंची की तरह दिन भर चलाने एवं अनर्गल बकवास करने के लिए बनाई गई है।
इसमें अजस्र शक्ति का भंडार भरा पड़ा है। यह उच्चारण अपने को तथा दूसरों को कितना प्रभावित करता है। इसका मर्म जो समझ लेते हैं। वे एक-एक शब्द को नाप-तोल कर बोलते हैं और अपनी निश्छलता एवं श्रद्धा का समावेश करके इतनी प्रभावशाली बना देते हैं कि सुनने वाला प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। वाणी वही है जो दूसरों का ह्रदय छू सके।
शब्द वही है जो निकलने के साथ अपने को हल्का करें और शांति की संभावना खोजने के लिए मुख से बाहर निकले। अनर्गल बकवास तो अपने शक्ति प्रवाह को ही नष्ट कर सकता है। अनुपयुक्त और दुर्भाव भरे शब्द दूसरों को तीर की तरह घायल करते हैं और अपने लिए प्रतिशोध एवं विद्वेष की प्रतिक्रिया लेकर लौटते हैं।
द्रौपदी के दुर्याेधन से अपमान और तिरस्कार भरे कुछेक शब्द कह देने का परिणाम महाभारत के रूप में सामने आया और उसमें अठारह अक्षोहिणी सेना का विनाश हो गया। हम में से कितने ही अकल्याणकारी वचन दुबुद्धि से भरे बोलते हैं और अपने पैरों में गड़ने के लिए काँटे बोते हैं। वाणी की गरिमा बनाए रखने और उसमें प्रभावशीलता भरे रहने के लिए कुछ आवश्यक अवयव हैं।
जो कि संवाद को सार्थकता प्रदान करने के कार्य करते हैं। इसलिए मुख खोलने से पहले विचार करने योग्य बात होती है कि जो हम कहना चाहते हैं वह सद्भावना युक्त है या नहीं। इसमें छल, व्यंग्य, क्रोध या तिरस्कार तो छिपा नहीं है। इसे कहने से सुनने वाले का अकल्याण तो न होगा। इतनी बात को विचार करने के पश्चात् जितना आवश्यक एवं हितकारी हो उतना ही बोला जाए तो असत्य, छल आदि कितने ही वाक दोषों से बचा जा सकता है और प्राणी के प्रभाव एवम तेजस् को अक्षुण्ण रखा जा सकता है।