भानु प्रताप मिश्र
यह मेरे कल्पना का नगर है। जिसमें हर दसवां व्यक्ति समाजसेवी है। यह एक छोटा सा नगर होने के बाद भी ख्याति प्राप्त नगर है। इसको ख्याति जिले का मुख्यालय होने के कारण नहीं, अपितु यहां के समाजसेवियों के कारण प्राप्त है। जिले का क्षेत्रफल लगभग 7 हजार वर्ग किलोमीटर होने के बाद भी, यहां तो व्यवसाय है ही नहीं, यहां सिर्फ और सिर्फ समाजसेवी ही वसते हैं। जो समाजसेवी नहीं हैं वे दीन-हीन, लाचार लोग हैं।
जिनका सेवा करना उन समाजसेवियों का अब तो धर्म बन गया है। जो छोटे समाजसेवी हैं। वे यहां के वृद्धाश्रम में चार केले लेकर बांट आते हैं, भले सुबह के अखबारों में उन केलों का विवरण छपा क्यों रहता हो ? विवरण भी ऐसा वैसा नहीं रहता, विवरण में 20 लोगों का नाम जरूर प्रकाषित रहता है। केले चार थे तो क्या हुआ। केले सेहत के लिए फायदे मंद होते हैं, इससे यह भी आकलन किया जा सकता है कि केले भारी थे…।
केला से याद आया कि यहां एक नदी बहती है। जिसका नाम भी इससे मिलता जुलता है। कभी-कभी समाजसेवा का स्थल इस नदी का तट भी होता है। इसकी वर्ष में एक बार आरती भी की जाती है। भले ही वर्ष भर फैक्ट्रियों और घरों के अवषिष्ट पदार्थ इसी नदी में प्रवाहित किये क्यों जाते हों। आखिर इसको रोकने की जिम्मेदारी तो प्रषासन की है, प्रषासन अपनी जिम्मेदारी पूरी न कर पाये, तो इसमें उन समाजसेवियों को बीच में क्यों घुसेड़ते हो भाई!
समजसेवा तो इसमें बंधे बांध की जिम्मेदारी से करोड़ों एकत्रित करने को कहते हैं क्योंकि इसमें छइया छपक छइया जैसे पुनित सेवा कार्य कराने के लिए धन की आवष्यकता तो होती ही है। समाज सेवा तो मनोरंजन के लिए नृत्यंगना बुलाया जाना भी होता है। क्योंकि चीन के एक विद्वान हट चीन सान के अनुसार मनोरंजन अवकाष के समय की जाने वाली सार्थक क्रिया है। भले यह सेवा कार्य किसी कारण से स्थिगित हो गया हो।
कुछ युवाओं में इसका मलाल रह ही गया कि इस महान सेवा कार्य के परिणाम के लाभ से वे वंचित रह गये। समाजसेवा तो साहब के लोचन से भी परिलक्षित हो जाता हैं। यह साहब, समाजसेवा के इतने बड़े पुरोधा हैं कि कुछ दिनों पूर्व ही एक बालिका के सेवा के लिए इनके उपर मामला भी दर्ज हो गया था। साहब चूंकि बड़े समाजसेवी हैं, इसलिए साहब का अर्थ ही साहब के साथ अनर्थ होने से बचाएगा।
इस काल्पनिक नगर में एक बिजेनदर भी रहता है। इसकी तो बात ही निराली है। यह कुछ दिनों पहले तक समाज सेवा में उन दीन-हीन लोगों के घरों तक मदिरा पहुंचवाने का पावन सेवा कार्य करता था। अब चूंकि इस पावन कार्य को सरकार ने अपने हाथ में ले लिया है, तब से प्रत्यक्ष तो नहीं लेकिन अप्रत्यक्ष भागीदारी इसकी रहती है। इस काल्पनिक नगर के जिला मुख्यालय में रहने वाला बिजेनदर हजारों एकड़ जमीनों का मालिक है।
इससे समझा जा सकता है कि इसके समाज सेवा का विस्तार भी कितना बड़ा होगा। साल में कई गोषालाओं के लिए गाय के चारा का इंतजाम हो या गुरूकुलों में दान या स्थानीय धर्म स्थलों में उसी के सेवा के कार्यों का डंका बजता है। डंका बजेगा भी क्यों नहीं जमीनों के माध्यम से सेवा करने वाले तो इस शहर में बहुतेरे हैं। लेकिन बिजेनदर कभी मंचों पर नहीं बैठता, सार्वजनिक स्थानों पर बिजेनदर कभी सार्वजनिक नहीं होता।
बिजेनदर में खास यह कि इसका रक्त शोषक यंत्र गुल्लर की फूल की तरह किसी को आज तक दिखा नहीं। बहरहाल समाज सेवा में उतकृष्ठ कार्यों के लिए बिजेनदर को बधाई। समाजसेवा के क्षेत्र में अनुपम उदाहरण प्रस्तुत करने वाला इस नगर में एक निराला भी रहता है। इसकी दूर दृष्टि महाभारत के संजय से भी अधिक है। काले काया का निराला कभी 12 हजार की नौकरी से जीवन पथ पर चलकर आज करोड़ों का मालिक है।
काले काया से याद आया कि इस काल्पनिक नगर के आस-पास काले हिरे का अकुत भंडार छुपा हुआ है। इसके माध्यम से भी समाजसेवा किया जाता है। यहां शायद आप चुक गये होंगे कि काले हिरे से सेवा कैसे किया जा सकता है ? देखिए भाई, सेवा किसी भी प्रकार का हो, सेवा के लिए धन की आवष्यकता होती ही है।
चाहे वह किसी तरह से कमाया गया हो। पैसे में कोई लिखा थोड़ी रहता है, कि यह काले हिरे के तस्करी से आया है या श्रम के पसीने से, पैसा तो पैसा है। इस सेवा कार्य में उसने कई उतार चढ़ाव भी देखें हैं। निराला पर इस सेवा के दौरान कई आरोप भी लगे हैं लेकिन निराला की यह दूरदर्षिता ही है कि आज कोयले के रहजन की संज्ञा को लक्ष्मी जी की कृपा से हटा कर उद्योग का मालिक कहलाता है
और अपने सेवा कार्यों से समाजसेवियों में उसका डंका बजता है। वैसे तो इस नगर में दर्जनों कोयला के रहजन रहते हैं लेकिन औरों के मुकाबले यह बड़ा समाजसेवी है। इसकी समाजसेवा में तमयता और उत्कृष्टता, उसे समाजसेवा में प्रथम पंक्ति का बनाता है। इस नगर में एक फकीर भी रहता है। वह इस नगर का अकेला व्यवसायी है।
जैसे मैंने पहले ही बताया कि इस नगर में व्यवसाय है ही नहीं क्योंकि यहां तो समाजसेवी ही बसते हैं, लेकिन शहर के वे समाजसेवी इसे समाजसेवी नहीं मानते। यह तो ठहरा व्यवसायी, फिर भी इसके कुटिया पर आने वाले लोग कभी खाली हांथ नहीं लौटते हैं। इस काल्पनिक नगर की एक धटना मेरे मानस पटल पर है। जिसका उल्लेख करना इस अवसर पर आवष्यक हो जाता है। यह फकीर अपने लिए कम और दूसरों के लिए ज्यादा जीता है।
इसलिए इसे घर के साथ-साथ बाहर भी कठिनाइयों का समाना करना पड़ता है। हां तो आप सोच रहे होंगे कि वह घटना क्या थी ? इस नगर का एक रामकुमार नामक दीन-हीन के पेट में अचानक दर्द होता है और वह वहां के बड़े अस्पताल में जाता है। अस्पताल में डॉक्टरों द्वारा यह बताया जाता है कि तुम्हारे पित्त की थैली में पथरी होने के कारण दर्द हो रहा है और यथाशीध्र इसका आपरेषन करा लेना चाहिए।
नहीं तो कुछ भी हो सकता है क्योंकि पित्त की थैली में सड़न शुरू हो गया है। तब रामकुमार को उस व्यवसायी फकीर की याद आती है और वह सोचता है कि यहां के समाजसेवी जो केले बांटकर विज्ञपति जारी करते हैं। वे तो सहयोग देने से रहे ! फिर वह उस फकीर से बात करता है और वह फकीर बीना कुछ विचार किये,
उसे एक बड़े अस्पताल में ऑपरेषन कराने के लिए जाने का सलाह देता है और स्वयं के पैसे से उस दीन-हीन रामकुमार का ऑपरेषन करा देता है। ऑपरेषन कराने के बाद वह दीन-हीन रामकुमार अब अपने परिवार के साथ खुष है और ईष्वर से उस फकीर के लम्बे जीवन और उसके परिवार की समृद्धि की कामना करता है।