गाना के मुखड़ा मा चिखला सने हे, गुंडा अउ बदमाश हीरो बने हे।
नीयत के नगरा सनीमा बनाए, बने करे राम मोला अंधरा बनाए।।
भानु प्रताप मिश्र
छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध कवि और गीतकार रामेश्वर वैष्णव द्वारा लिखे हुए, इस गीत की उपरोक्त कुछ पंक्तियां सिनेमा के विषय पर बहुत कुछ कहती हैं। सिनेमा अर्थात् मनोरंजन केवल धन कमाने का साधन नहीं हो सकता है। धन तो केवल मनुष्य के विनिमय शक्ति को सशक्तता प्रदान करता है, किन्तु सामाजिक संरचना और सांस्कृतिक आचरण तो समाज के बनावट के अनुसार व्यक्तित्व निर्माण का कार्य करता है।
अर्थात् जिस समाज का साहित्य जितना समृद्ध होगा, उस समाज के लोगों के आचरण भी उतने ही उत्कृष्ठ होंगे और उस समाज के मनोरंजन की अवस्था भी उसी स्तर की होगी। कहते हैं कि सिनेमा समाज का दर्पण होता है, तो यहां कुछ प्रश्न उत्पन्न होते हैं कि क्या भारत का समाज आज वैसा ही है, जैसा सिनेमा भारत को दिखाता है ? क्या भारत के हर गाँवों में महिलाएँ बिकिनी पहन कर सड़कों पर घूमती हैं ?
क्या काली माता की सिगरेट पीती हुई मूर्ति भारत के किसी भी मंदिर में स्थापित की गयी है ? क्या भारत के हर सेठ जी लुटेरे और रहीम चाचा ईमान के पक्के हैं ? ऐसे बहुतेरे प्रश्न हैं, जिनका उत्तर खोजना सिनेमा जगत के लोगों के लिए आवश्यक है। सिनेमा को अपने अपराध के कारण ही लोगों के उपेक्षा का शिकार होना पड़ रहा है।
सिनेमा चूँकि मीडिया का एक मूल अंग है और मीडिया का मूल कार्य लोगों तक ज्ञान-विज्ञान पहुँचाना, लोगों को शिक्षित करना और लोगों को मनोरंजित करना आदि है। लेकिन अब मीडिया का यह अंग सामाजिक बनावट, सांस्कृतिक संरचना, ज्ञान-विज्ञान पर चर्चा, पर्यावरण के समस्या पर विमर्श आदि जैसे मूल समस्याओं को छोड़कर समाज के उन पहलूओं पर विशेष ध्यान केन्द्रित करने लगा है, जो समाज की विसंगतियाँ हैं। यही कारण है कि अब हिन्दी सिनेमा के प्रति लोगों के बीच उदासीनता भी देखने को मिल रहा है।
सिनेमा का परिचय व सिनेमा एक माध्यम
सिनेमा जनसंचार का एक माध्यम मात्र है। सिनेमा का उद्देश्य भी समाज में उपस्थित हर जनसंचार माध्यमों की भाँति ही है। जिस प्रकार जनसंचार के हर माध्यम से पत्रकारिता का उद्देश्य समाज को शिक्षित करना, समाज तक घटित घटनाओं की सूचना को पहुँचाना और समाज तक स्वस्थ मनोरंजन पहुँचाना होता है। उसी प्रकार सिनेमा भी एक मीडिया है, जिसमें लिखने वाले भी साहित्य जगत के ही लोग होते हैं।
लेकिन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इन साहित्यकारों का उद्देश्य या तो किसी विशेष विचार को लोगों पर थोपना या तो फूहड़ता को लोगों के बीच परोस कर अपने विनिमय शक्ति को सशक्तता प्रदान करना ही रह गया है। क्योंकि आज का एक सबसे बड़ा सत्य यह है कि लोगों का स्तर धनबल पर आकलित किया जाने लगा है। जो कि भारतीय मानक के ठीक विपरीत है और समाज में इसकी प्रधानता स्थापित करने में सिनेमा की भी अहम भूमिका रही है।
सिनेमा का मानवीय जीवन पर प्रभाव
सिनेमा श्रव्य और दृश्य दोनों विधाओं के एकीकरण से बना एक जनसंचार माध्यम है। जिसमें पटकथा, गीत, नृत्य आदि मिश्रित होता है। इन सभी अवयवों को मिलाने के पश्चात् यह सिनेमा के रूप में लोगों के समक्ष प्रस्तुत होता है। सिनेमा को देखने के लिए मनुष्य के श्रव्य और दृश्य दोनों ज्ञानेन्द्रियाँ एक साथ कार्य करती हैं। अर्थात् श्रव्य माध्यमों द्वारा दिए जाने वाले संदेशों को सुनने में कान और दृश्य माध्यमों द्वारा प्रस्तुत किए जाने वाले वीडियो को देखने के लिए आँख।
अतः व्यक्ति सिनेमा देखते समय दोनों ज्ञानेन्द्रियों का उपयोग कर रहा होता है। इसलिए व्यक्ति में मस्तिष्क को एकाग्र करने वाले हार्मोन का स्राव होने लगता है और व्यक्ति एकाग्र होकर सिनेमा में प्रस्तुत संदेश को पूर्ण से अंगीकार कर लेता है। यही कारण है कि उसके जीवन में भी सिनेमा के कुछ हिस्से मिश्रित हो जाते हैं। जो कि व्यक्ति के परिधानों और आचरण तथा भाषा के माध्यम से समाज में प्रदर्शित भी होते हैं।
सिनेमा पर तथाकथित प्रगतिशील विचारों का प्रभाव
भारत को स्वतंत्रता अपने वैचारिक मूल्यों पर मिली या नहीं यह तो विमर्श का विषय है। लेकिन स्वतंत्रता के पीछे भारत के सांस्कृतिक और साहित्यिक विरासत का बहुत बड़ा शिलालेख है, और यह शिलालेख भारत के हर स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के जीवन में परिलक्षित भी होता था। बस टाई बाँधने वाले स्वतंत्रता संग्राम के ध्वज वाहकों को छोड़कर। अब हम स्वतंत्रता के संग्राम को यहीं विराम देते हैं और आगे सिनेमा की ओर चलते हैं। स्वतंत्रता के बाद लगभग तीन दशकों तक जो फिल्में बनी, उसमें कुछ को छोड़ दिया जाए तो वे फिल्में भारत के संस्कृति के अनुरूप रहीं।
लेकिन उसके बाद विनिमय शक्ति को सशक्तता प्रदान करने में सिनेमा भी लग गया। जबकि मीडिया के कंधे पर समाज को रास्ता दिखाने की जो जिम्मेदारी होती है। उसे तो सिनेमा ने ड्रग के बाजार में बेंच ही दिया। साथ ही साथ माफियाओं और दुर्दांत अपराधियों का सिनेमा में पदार्पण हुआ। तभी तो छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध कवि और गीतकार रामेश्वर वैष्णव को उपरोक्त पंक्तियाँ लिखनी पड़ी। इन कारकों के अतिरिक्त सिनेमा में मार्क्स के दत्तक पुत्रों अर्थात् प्रगतिशील विचारों के संवाहकों का प्रादुर्भाव हुआ और सिनेमा ने भारत के सांस्कृतिक वैशिष्ट पर प्रहार करना शुरू कर दिया।
सिनेमा से मत को प्रभावित करने का प्रयास
लगभग दो दशकों से यदि सिनेमा को देखा जाए तो मिलता है कि सिनेमा में चर्च का फादर बहुत ईमानदार और मंदिर का पुजारी षड़यंत्रकारी होता है। गनिमत बस यह है कि आंतकी रामलाल नहीं होता है। हाँ, रामलाल गली का छोटा-मोटा मवाली हो सकता है। इसके अतिरिक्त पी.के. जैसी फिल्में तो सीधे-सीधे भारतीय दर्शन को चुनौती देती हैं। जब कि पटकथा के लेखक महोदय यह भूल गये कि भारतीय दर्शन और साहित्य ने जिस विषय वस्तु को हजारों वर्षों पूर्व उल्लेख कर दिया था।
उसे विज्ञान शोध करने के पश्चात् आज सत्य बता रहा है। जैसे – पृथ्वी गोल है, नक्षत्रों की अपनी गति होती है, नक्षत्रों की गति का प्रभाव मानवीय जीवन पर पड़ता है। कुल मिलाकर कहना यह है कि भारत हमेशा उदार संस्कृति वाला राष्ट्र रहा है और धर्म पर, परम सत्ता पर, अनंत की खोज पर भारत में हमेशा शास्त्रार्थ होता रहा है।
लेकिन समान्य बौद्धिक क्षमता का व्यक्ति पर फिल्मों का प्रभाव होता है। मीडिया का बुलेट सिद्धांत भी इस बात की पुष्टि करता है। इसलिए आज सिनेमा को पाश्चात जगत के संकल्पना और संक्रमित वैचारिक संकल्पना से बाहर निकालकर जन सामान्य के समस्याओं और सांस्कृतिक वैशिष्ट के संरक्षण की दिशा में ले जाने की जरूरत है।