परिवारवाद से ऊपर उठता भारतीय लोकतंत्र

by Bhanu Pratap Mishra

भानु प्रताप मिश्र

भारतीय लोकतंत्र विश्व का सबसे प्राचीन और बड़ा लोकतंत्र होने के बाद भी वर्तमान परिप्रेक्ष्य में लोकतंत्र के बदलते स्वरूप में यह देखने को मिल रहा है कि भारतीय राजनीति में परिवारवाद ही प्रमुखता से उभर कर हमारे समक्ष आ रहा है। जो कि लोकतांत्रिक स्वस्थ्य के लिए बहुत ही हानिकारक है। उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल सहित भारत के लगभग दो तिहाई राज्यों के राजनीति के अतिरिक्त भारत की सबसे पुरानी राजनैतिक पार्टी कांग्रेस के शीर्षस्थ नेतृत्व में भी परिवारवाद का होना भारतीय लोकतंत्र के लिए हानिकारक है।

जिसका अब जन सामान्य में विरोध तो देखा ही जा रहा है। साथ ही राजनैतिक पार्टियों से बड़े नेतृत्व का निकलना भी उस ओर संकेत दे रहा है कि भारत अपने प्राचीन इतिहास को दोहराने की ओर अग्रसर है। इसलिए हमें भारत के प्राचीन लोकतांत्रिक व्यवस्था की जानकारी होना आवश्यक है। यही कारण है कि मेरे द्वारा लिखी गयी पुस्तक, “भारतीय संचार यात्रा” के कुछ अंश को पाठकों तक पहुंचाने के प्रयास में, यह आलेख मेरे द्वारा प्रस्तुत किया जा रहा है।

वैदिक काल में लोकतंत्र का प्रमाण

संवैधानिक प्रावधानों से भारत के वर्तमान स्थिति और कुछ वर्षों के पूर्व की स्थिति का आकलन तो किया जा सकता है। लेकिन भारत की सभ्यता विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता है। इसलिए मैंने व्यक्तिगत रूप से अनुभव किया कि भारत के वैदिक काल की भी शासन और संचार प्रणाली की जानकारी इस पुस्तक में होनी चाहिए। यही कारण है कि मैं इस पुस्तक में वैदिक काल के शासन प्रणाली और संचार व्यवस्था का उल्लेख कर रहा हूँ।

जिससे कि संचार में हो रहे नित नये प्रयोग को बल मिले। क्योंकि आज के शल्य चिकित्सा के आधुनिक वैज्ञानिक भी इस विषय को मानते हैं कि महर्षि सुश्रुत द्वारा दिये गये शल्य चिकित्सा सिद्धांत वर्तमान के शल्य चिकित्सा की नींव है। उसी प्रकार मेरा भी भारत के वैदिक इतिहास के अध्ययन के उपरान्त यह मानना है कि लोकतंत्र भारत के वैदिक काल का स्वरूप है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भारतीय दर्शन का नैसर्गिक प्रारूप है।

डॉ. ए. के. मित्तल और डॉ. आर. एल. अग्रवाल द्वारा छत्तीसगढ़ की स्नातक के प्रथम वर्ष के इतिहास में ऋग्वैदिक काल के सामाजिक संरचना के सम्बन्ध में लिखा गया है। जो कि निम्नलिखित प्रकार से विस्तारित किया गया है।

ऋग्वैदिक काल : भारतीय संस्कृति के इतिहास में वेदों का स्थान अत्यन्त गौरवपूर्ण है। वेद भारत की संस्कृति की अमूल्य सम्पदा हैं और हमारी प्राचीनतम ग्रन्थ भी वेद ही हैं। भारतीय संस्कृति में वेदों का अत्यधिक महत्व है, क्योंकि सनातन हिन्दू सभ्यता के लोगों की आचार-विचार, रहन-सहन, धर्म-कर्म की विस्तृत जानकारी इन्हीं वेदों से ही प्राप्त होती है।

जिस प्रकार लौकिक वस्तुओं को देखने के लिए नेत्रों की आवश्यकता होती है। उसी प्रकार अलौकिक तथ्यों को जानने के लिए वेद की उपादेयता है। यही कारण है कि मनु ने लिखा कि आस्तिक वह है, जो वेद की प्रामाणिकता में विश्वास रखे व नास्तिक वह है जो वेद की निन्दा करे। इससे हिन्दू संस्कृति में वेदों का महत स्वतः स्पष्ट हो जाता है। ये दोनों इतिहास वेत्ता लिखते हैं कि वेदों की रचना किस काल में हुई इसका पुष्टिप्रद उत्तर तो किसी इतिहासकार के पास नहीं है।

ऐसा प्रतीत होता है कि ऋग्वेद को सम्भवतः 1500 ई. पू. से 1000 ई. पू. के मध्य लिपिबद्ध किया गया होगा और अन्य वेदों व वैदिक साहित्य को ऋग्वेद के पश्चात् लिपिबद्ध किया गया होगा। इस प्रकार सम्पूर्ण वैदिक साहित्यों को सम्भवतः 1500 ई. पू. से 200 ई. पू. के मध्य लिपिबद्ध किया गया होगा। इसी युग (1500 ई. पू. से 200 ई. पू.) को वैदिक युग के नाम से जाना जाता है।

वेदों की संख्या चार है – (1) ऋग्वेद, (2) यजुर्वेद, (3) सामवेद, (4) अथर्ववेद।

इन वेदों में ऋग्वेद प्राचीनतम है व अथर्ववेद को सबसे बाद में लिपिबद्ध किया गया है। जिस युग में ऋग्वेद को लिपिबद्ध किया गया, उसे ऋग्वैदिक काल अथवा पूर्व वैदिक काल (ऋग्वेद एज या अरली वेद एज) कहते हैं। शेष तीनों वेदों के लिपिबद्ध करने के कालावधि को उत्तर वैदिक युग (लेटर वैदिक एज) कहते हैं।


ऋग्वैदिक सभ्यता : सनातन धर्म मानने वालों का प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद है। यह ग्रन्थ 1017 सूक्तों की संहिता है तथा 11 बालाखिल्य सूक्तों को मिलाने पर इसमें कुल 1028 सूक्त हैं। यह संहिता दस मण्डलो में विभक्त है। ऋग्वेद से सनातन धर्म मानने वालों की तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक एवं राजनीतिक व्यवस्थाओं पर व्यापक रूप से जानकारियाँ मिलती हैं।

उस काल में जीवन की प्राथमिक इकाई परिवार हुआ करती थी, जो कि आज भी है। परिवार का मुखिया घर का वयोवृद्ध पुरूष हुआ करता था, जो कि भारतीय संस्कृति में आज भी हुआ करता है। उस काल में भारत के लोगों का स्वस्थ एवं आशावादी दृष्टिकोण था। उस काल में जीवन को सुखद ढंग से व्यतीत करने का साधन मनोरंजन था। जिसमें संगीत, नृत्य, नाट्यकला, शिकार, रथ-दौड़, जुआ आदि मनोरंजन के साधन हुआ करते थे।

वही उस काल अवधि में भारत के वासियों के जीवन में भोजन के प्रकार का उल्लेख मिलता है। साथ ही साथ परिधान, औषधियों का ज्ञान, शिक्षा आदि का भी उल्लेख मिलता है। जाति के विषय में उस अवधि में यह बताया गया है कि वैश्य और शूद्र जैसे शब्दों का प्रयोग नहीं मिलता है। अर्थात् उस काल अवधि में जो युद्ध में भाग लेते थे, वे क्षत्रिय और जो अध्ययन-अध्यापन तथा पूजा-पाठ के कार्यों को निष्पादित करने वाले को व्यक्ति को ब्राह्मण कहा जाता था।

यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि उक्त इतिहासकार लिखते हैं कि इस काल अवधि में जाति का सम्बन्ध जन्म से नहीं मिलता है। अर्थात् कर्म के आधार पर वर्ण व्यवस्था के होने को वे स्पष्ट करते हैं। वहीं वे दाम्पत्य जीवन के सम्बन्ध में कहते है कि ऋग्वेद युग में बाल विवाह प्रचलन भारत में नहीं था। तत्कालीन भारतीय समाज में कृषि, पशुपालन, आखेट, लघु-उद्योग और व्यापार एवं वाणिज्य का भी प्रमाण मिलता है।

वे इस इतिहास के पुस्तक में लिखते है कि तत्कालीन भारतीय समाज लघु-उद्योग और व्यापार एवं वाणिज्य उन्नत स्थिति में था। वहीं दोनों इतिहासकार लिखते हैं कि ऋग्वेद काल में सभा और समिति (काउंसिल और असेम्बली) हुआ करती थीं। जो कि राजा को मनमानी करने से रोकती थीं। साथ ही साथ उनके हाथों में सत्ता पर नियंत्रण करने का अधिकार रहता था।

जो कि राजा का चुनाव करती थीं और उनको पदच्युत करने का अधिकार भी रखती थीं। जिसका विस्तारित स्वरूप, आज के लोकतंत्र को कहा जा सकता है। निष्कर्ष में वे लिखते हैं कि सनातन संस्कृति ऋग्वैदिक काल में अत्यधिक उन्नति कर चुकी थी। जैसा कि हम यह साधारण रूप से आकलन कर सकते हैं कि किसी भी समाज के उन्नति का आधार उसकी शासन प्रणाली और उसकी संचार व्यवस्था पर ही निर्भर करती है।

इसलिए यह साधारण रूप से कहा जा सकता है कि उनकी शासन प्रणाली और संचार करने का कौशल दोनों ही उत्कृष्ट होगा, तभी यह संभव हो सकता है कि वह समाज विश्व का सबसे उन्नत समाज का स्वरूप बना गया होगा। इससे यह स्पष्ट रूप से पता लगाया जा सकता है कि उस काल में आर्यावर्त अर्थात् भारत की समाजिक संरचना कैसी थी।

ऋग्वेद काल में शासन व्यवस्था

इस पुस्तक को लिखने से पूर्व मैंने पत्रकारिता के अतिरिक्त अन्य कई पुस्तकों का अध्ययन किया। क्योंकि पत्रकारिता तो मेरा कार्य क्षेत्र है, इसलिए इतिहास की जानकारी जुटाना मेरे लिए आवश्यक हो जाता है। यही कारण है कि मैंने इतिहास के पुस्तकों को भी पढ़ा। जिसमें मैंने राम शरण शर्मा द्वारा लिखी हुई, भारत का प्राचीन इतिहास को पढ़ा। यहाँ यह बता देना आवश्यक है कि यह पुस्तक संघ लोक सेवा आयोग की तैयारी करने वाले छात्रों द्वारा सार्वधिक पढ़ा जाता है।

राम शरण शर्मा द्वारा लिखित इस पुस्तक के पृष्ठ संख्या 117 पर भी यह स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि उत्तर-वैदिक ग्रंथों में भी राजा के चुनाव के संकेत मिलते हैं। शारीरिक एवं अन्य विशेषताओं में सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति को राजा चुना जाता था। अर्थात् ऋग्वैदिक काल से उत्तर वैदिक काल तक सभा और समितियों के पास राजा का चयन और पदच्युत करने का अधिकार था। यह सभा और समितियाँ उस राज्य के विद्वानों द्वारा संचालित की जाती थी।

अतः उस काल में राजा वंश के आधार पर नहीं बनाया जाता था। उस काल में राजा योग्यता के आधार पर चयनित किया जाता था। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि राजा लोगों के सभाओं और समितियों द्वारा चयनित किया जाता था। उस काल में महिलाओं की भी स्थिति अच्छी थी। जिसका प्रमाण उस काल की कुछ विदुषी महिलाओं से मिलता है। उस काल की कुछ विदुषी महिलाओं के नाम प्रचलित हैं। जिनमें प्रमुख नाम – विश्ववारा, अपाला, घोषा, गार्गी, मैत्रेयी, सुलभा, लोपामुद्रा, उशिज, प्रातिथेयी, दीर्घतमा, भामती आदि थीं।

इससे उस काल के महिलाओं की सामाजिक स्थिति का आकलन भी सरलता से किया जा सकता है। इस विषय पर मेरा मानना है कि लोकतंत्र का नींव भारत में ऋग्वैदिक काल से उत्तर वैदिक काल के बीच पड़ा, जिसका विस्तृत स्वरूप आज के भारत में ही देखने को मिलता है। क्योंकि जिस चुनाव प्रणाली का इतिहासकारों ने ऋग्वैदिक काल से उत्तर वैदिक काल के बीच इतिहास में उल्लेख किया है। उसका व्यवस्थित स्वरूप वर्तमान भारत के चुनाव प्रणाली में दिखता है।

ऋग्वैदिक काल से संचार कौशल की उत्पति

भारत में संचार कौशल का क्रमविकास, का प्रमाण भी इसी काल से प्राप्त होता है। जिसमें लोक संचार के माध्यमों का क्रमविकास ही प्रमुख माना जाता है। यहाँ यह उल्लेख करना आवश्यक हो जाता है कि संचार के क्षेत्र में भरतमुनि का नाट्यशास्त्र प्राचीनतम श्रोत माना जाता है। जो कि लोककलाओं अर्थात् लोक संचार के माध्यमों का आधार माना जाता है।

उसकी रचना की काल अवधि भी उत्तर-वैदिक काल ही है। जिसमें संचार के माध्यमों का प्रकार से लेकरए प्रभाव पर भी भरतमुनि ने विस्तार से प्रकाश डाला है। जिसको मैंने लोक संचार के अध्याय में, अपने बौद्धिक क्षमता के आधार पर लिखने का प्रयास किया है। जिसमें मैंने रस का मानव जीवन पर प्रभाव को वैज्ञानिक प्रमाण का उदाहरण देते हुए लिखा है। भारत पूरे विश्व में एक अकेला विविध लोक संस्कृतियों वाला देश है।

फिर भी हर लोक संस्कृति में भारतीय दर्शन निहित है और लोक संचार के दौरान वह परिलक्षित भी होता है। लोक संचार चाहे दक्षिण का हो या पूर्व का या मध्य भारत का हर लोक संस्कृति में आज भी स्पष्ट रूप से भारतीय दर्शन को देखा जा सकता है। जो कि लोक संचार के दौरान प्रदर्शित होता है। इन्हीं प्रमाणों के अध्ययन से मेरी व्यक्तिगत मान्यता है कि भारतीय लोक संचार भारतीय दर्शन में प्राचीनता को प्रमाणिकता प्रदान करता है।

सभा और समितियों का कार्य

आज पूरा विश्व यह मान चुका है कि भारत की सभ्यता पूरे विश्व में सबसे प्राचीन सभ्यता है। यही कारण है कि भारत के प्राचीन इतिहास के सम्बन्ध में इतिहासकारों ने लिखा है और उसे भिन्न-भिन्न पाठ्यक्रमों में पढ़ाया भी जाता है। उन सभी पुस्तकों के अध्ययन करने पर उस कालावधि की सामाजिक बनावट, और शासन व्यवस्था की विशेष जानकारी मिलती है। इन सभी इतिहासकारों का समान रूप से मानना हैं कि उस कालावधि में शासन व्यवस्था को चलाने के लिए भारतीयों ने एक व्यवस्थित प्रणाली को विकासित किया था।

जिसमें सभा व समितियाँ बनायी गयी थीं और इन सभा व समितियों द्वारा राज व्यवस्था के संचालन के लिए राज्य के योग्य व्यक्ति को राजा के रूप में चयनित किया जाता था और यदि वही राजा निरंकुश हो जाए, तो उस परिस्थितियों में राजा को पदच्युत कर देने का अधिकार भी इन सभा और समितियों को प्राप्त था।

क्योंकि सभा और समितियों में राज्य के बौद्धिक जनमानष सैन्य अधिकरी और हर गाँव से चयनित व्यक्ति का प्रतिनिधित्व होता था। इसलिए राजा के निरंकुश होने की स्थिति में सरलता से पदच्युत कर दिया जाता था। यहाँ यह उल्लेख करना आवश्यक हो जाता है कि सभाओं और समितियों का अलग-अलग प्रारूप हुआ करता था। उस कालावधि में भारतीयों की राजनैतिक व्यवस्था कुछ इस प्रकार हुआ करती थी।

कुटुम्ब : उस कालावधि में मानव जीवन की सबसे पहली इकाई को कुटुम्ब कहते थे। कुटुम्ब में संयुक्त परिवार की प्रथा थी और परिवार के सबसे अधिक आयु वाला व्यक्ति, कुटुम्ब अर्थात् परिवार के सदस्यों का प्रधान होता था।

ग्राम : अनेक कुटुम्बों को अर्थात् परिवारों को मिलाकर एक गाँव बनता था। जिसका एक प्रधान होता था, उसे ग्रामीण कहा जाता था। जो कि गाँव के कुटुम्बों के प्रधानों में से एक होता था और वह परिवार के प्रधानों द्वारा ही चयनित किया जाता था।

विश : अनेक गाँवों को मिलाकर विश बनता था। जिसके प्रधान को विशपति कहा जाता था। विशपति का चयन गाँव के अधिकारी अर्थात् गाँव के ग्रामीणों द्वारा किया जाता था।

जन : अनेक विशों को मिलाकर जन का स्वरूप बनता था। जिसका प्रधान गोप होता था। जन के योग्य निवासी को विशपतियों द्वारा गोप के रूप में चयनित किया जाता था।

राष्ट्र : इसका प्रधान राजा होता था। जो कि सभाओं और समितियों द्वारा चयनित किया जाता था।सभाएँ और समितियाँ : इसका प्रारूप कुछ इस प्रकार होता था। परिवार का प्रधान कुटुम्ब, गाँव का प्रधान अर्थात् ग्रामीण, विश का प्रधान विशपति और जन का प्रधान गोप आदि सभाओं और समितियों में सदस्य हुआ करते थे।

वहीं गुरूकुलों के शिक्षाविद् इन सभाओं और समितियों का नेतृत्व किया करते थे। इस प्रकार सभाओं और समितियों द्वारा राजा की चयन प्रक्रिया थी। इसलिए व्यक्तिगत रूप से मेरा मानना है कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भारतीय लोकतंत्र उसका वृहद स्वरूप है।

You may also like