कमल कपूर
मई माह की चिलचिलाती धूप में झुलसते और गर्म हवाओं के तमाचे खाते हुए वह तेज़-तेज़ कदम रखते हुए घर की ओर बढ़ रहा था… दो ठ़डे-मीठे ख्यालों को मन में संजोये कि घर जाते ही माँ से कहेगा कि खूब सारी कुटी बर्फ मिला रूह अफज़ाह का शर्बत बना दें, जिसे तृप्त भाव से पी कर कूलर की मनभावन ठंडक में पाँव पसार कर साँझ तक सोता रहेगा….
हाँ सिर्फ साँझ तक ही, जब तक पापा नहीं आते क्योंकि पापा के आने के बाद तो उसे पल-पल विषय बदलते उनके भाषण ही सुनने होंगे… उफ! यह विचार भी कंपकंपा गया उसे। तवे सा सुलगता लैच सरका कर उसने गेट खोला और फिर ‘ डोर-बेल’ पर उंगली धर दी… भड़ाक्क से किवाड़ खुला पर यह क्या… सामने मुस्कुराती हुई माँ नहीं, तमतमाता चेहरा लिये पापा खड़े थे।
“पा..पा ! आप? आज जल्दी कैसे? और..और. ” सवारी कहाँ से आ रही है?” उसके सवाल पर कैंची चलाते हुए पापा ने कड़वे स्वर में अपना सवाल दागा”जी.. जी ‘ चित्रकला-कुँज” तक गया था… चित्र-प्रदर्शनी थी… माँ से पूछ कर गया था जी!” सहमे स्वर में कहा उसने।
“मैं तुमसे कह कर गया था न कि कोचिंग-क्लॉस का पता करने जाना और तुम बकवास सी प्रदर्शनी में पहुँच गये? क्यों अपना बेड़ा डुबोने पर तुले हो? मेरी बात पत्थर की लकीर समझो कि तुम्हें इंजीनियरिंग की पढ़ाई करनी है… बस, कह दिया सो कह दिया, “तल्ख़ स्वर में अपना फैसला सुना कर पापा अपने कमरे में चले गये और खिन्न मन लिए वह अपने कमरे कूलर में पानी नहीं था
और उसमें हिम्मत नहीं थी पानी भरने की इसलिये पँखे की भाप उगलती हवा से ही समझौता कर लिया उसने। यूँ भी अब गर्मी और प्यास दोनों ही अहसास दम तोड़ चुके थे। खूब रोने को जी चाह रहा था पर आँसू पी कर आँखें मूंद लीं उसने और सोचने लगा कि आखिर क्यों पापा उसकी रुचियों को नहीं समझते? नहीं बनना उसे इंजीनियर तो क्यों करे इंजीनियरिंग की पढ़ाई? क्या सिर्फ इसलिये कि पापा चाहते हैं ?
और पापा भी इसलिये चाहते हैं कि वो खुद नहीं बन पाये। यह क्या बात हुई? इस रूखे विषय को नहीं पढ़ -समझ पायेगा वह। उसका मन तो चाँद, सितारों, ढलते-उगते सूरज, बादल ,बरसात,इंद्रधनक,फूल ,कलियों, तितलियों, नद,नदी,निर्झरों, पाखियों के कलरव ,शिशुओं की किलकारियों और हंसती- मुस्कुराती मानव-आकृतियों को कोरे कैनवस पर उतारने में रमता है। उसे रंग भाते हैं। कला की दुनिया में नये -नये आयाम खोजने हैं उसे।
यह गीत गाते-गाते थक गया है वह पर पापा हठ ठान कर बैठे हैं…. बैठे रहें, वह भी इस मामले में उनका ही बेटा है ” आर्यन !” यह मीठा संबोधन कानों की राह से गुज़र कर, रूह में उतर कर शीतल पवन परस का सा अहसास करा गया और कमरा भी खस की सुगंधित ठंडक से भर गया। आहिस्ता से पलकों का पर्दा हटाया उसने… हाथ में रूह अफज़ाह शर्बत से भरा बड़ा सा शीशे का गिलास थामे,चेहरे पर सौम्य स्मित सजाये माँ खड़ी थीं।
उसने गिलास थाम कर पूछा, ” मां! आपने कैसे जाना कि शर्बत पीने का मन था मेरा और आपने कूलर में पानी भी भर दिया?” ” माँ हूँ न तेरी? काहे ना समझूँगी रे?” उजला सा मुस्कुराईं वह
“पर वो भी तो पापा हैं न माँ? फिर क्यों नही समझते अपने ही बेटे के मन को ” तेरा बुरा सोच ही नहीं सकते वो आरू! उन पर यकीन कर बच्चे और काहे सोचें ” अभी कल ही तो बारहवीं के इम्तेहान खत्म हुए हैं माँ और वो बीस बार भाषण दे चुके हैं और मैं अपने मन का कैरियर चुनना चाहता हूँ तो इसमें क्या गलत है माँ?”
“बात सही -गलत की तो है ही नहीं रे आरू! दरअसल वे ….
आर्यन ने तुरंत बात काटी,” आप उनके पक्ष में कुछ सफाई दें ,इससे पहले मैं आपसे कुछ कहना चाहता हूँ पर आप बीच में तो नहीं टोकेंगी न?”
माँ ने मौन भाव से स्विकृति में सिर हिलाया तो उसने अपनी बात रखी,
“माँ! मैं तो पढने में औसत हूँ लेकिन दीदी ने तो स्कूल टॉप किया था और वह मेडिकल में जाना चाहती थीं… डॉक्टर बनने का सपना था उनका, पर पापा ने उनके ख्वाब को भी कुचल दिया यह कह कर, ‘तुम कौन ज़िन्दगी भर हमारे घर में बैठी रहोगी, जो तुम्हें डॉक्टर बनायें हम?’ और बी. एस. सी. और बी. एड. करवा कर उनका ब्याह रचा दिया। एम. एस. सी. भी उन्होंने शादी के बाद की। क्यों माँ?”
” … क्योंकि तुम्हारे पापा जानते और मानते हैं कि लड़कियों को अपने ससुराल के फर्ज़ भी निभाने होते हैं इसलिये टीचर की नौकरी बैस्ट है उनके लिये और तुम्हारी आरती दीदी ४० हजार रुपये महीना कमा रही है अपनी स्कूल की नौकरी से। अब बोलो।”
“क्या बोलूँ सिवाय इसके कि दीदी के मन में गहरी कसक है कि वह डॉक्टर नहीं बन पाईं। उनका यह दर्द मैं जानता हूँ आप लोग नहीं।” कहते-कहते आँखें नम हो आईं आर्यन की। माँ के पास शायद कोई जवाब नहीं था अब इसलिये उसके सिर पर हाथ फेरते हुए स्नेहसिक्त वाणी में बोलीं,” अब सो ले थोड़ी देर ” और वहाँ से चली गईं पर नींद कैसे आती उन नैनों में,जिनमें एक बड़ा चित्रकार बनने के सपने बसे थे।
मन में उथलपुथल चल रही थी और कोशिश करने पर भी जब तनाव के घेरे से खुद को बाहर न निकाल पाया तो उठ कर अपनी रंगों की दुनिया के पास आ गया और बेध्यानी में कैनवस पर जो चित्र उभरा वह था…. एक फूलदार घने पेड़ की छाँव में खड़ा एक अधसूखा पौधा, जिसकी दुबली सी टहनी से दो नव पल्लव झर रहे थे। कांपते हाथों से उसने शीर्षक दिया ‘झरते आँसू’, फिर उसकी फोटो खींच कर दीदी को भेज दी। तुरंत जवाब आ गया… ‘निराश न हो भाई! सब ठीक हो जायेगा।’
पापा ने दोपहर के बाद, रात… उसके बिस्तर पर जाने तक उससे बात नहीं की। शायद अब वह मौन रह कर अपना गुस्सा जता रहे थे या फिर अपने हठ को पोषित कर रहे थे… क्या चल रहा है उनके मन में, सोच की इसी गली में विचरते हुए देर रात तक उसे नींद न आई और… और… अभी भोर का पहला पाखी भी न चहका था कि माँ ने जगा दिया, ” आरूरूरू! जल्दी से उठ जाओ मुन्ना! दादू आये हैं।”
“दादू आये हैं? क्यों?” झटके से उठ कर बैठ गया वह। “अरे ! आने के लिये कोई वजह चाहिये क्या बाबूजी को? मिलने का जी चाहा होगा तो चले आये,” माँ मुस्कुराईं। “पर मैं वजह जानता हूँ माँ! खुद थक गये न पापा मुझे डंडे मारते-मारते तो दादू को बुला लिया।
बस अब खूब जम कर धुनाई होने वाली है मेरी।” “ऐसा कुछ नहीं होने वाला। तुम नहा- धो कर ही बाहर निकलना अभी बाबूजी पूजा में बैठे हैं, उन्हें देर लगेगी।” कह कर माँ चल दीं पर दरवाजे तक जा कर मुड़ीं, “और सुनो अपने दादू जी से बहस न करना। वो जो भी कहें चुपचाप सुन लेना।”
नहा कर निकला तो सबसे पहले दीदी को टैक्सट किया, ‘दीदी ! प्लीज़ जितनी जल्दी हो सके आ जाओ । दादू आये हैं गाँव से।’
सदा की तरह फौरन जवाब आ गया एक स्माइली के साथ, ‘ठीक है भाई!’
मन सुखद आश्वस्ति से भर उठा। साथ ही उम्मीद की लौ भी झिलमिला उठी कि यदि बात बिगड़ी तो दीदी उसका पक्ष ले कर सब संभाल लेंगी।
आँगन में, गुलमोहर की ललछौंही छाँव में बिछी चारपाई पर बैठे अखबार पढ़ रहे थे दादू। उसने निकट जा कर उनके चरण छूते हुए नर्म स्वर में कहा,”पाय लागूँ दादू जी।”
” अरेरेरे ! मुन्ना” वह अखबार छोड़ कर उठ खड़े हुए और उसे बांहों में भरते हुए बोले,” कैसे हो बचवा ? पर्चे कैसे हुए ?”
” ठीक हो गये दादू जी !”
तभी पापा भी आ गये और दादू की चारपाई के पास कुर्सी खींच कर बैठ गये। माँ चाय ले आईं और चाय के सैशन के बाद छुटपुट बातों का दौर चल निकला। फिर अचानक दादू ने पूछ लिया, ” हाँ तो भई मुन्ना ! अब आगे क्या पढ़ने की सोची तुमने?”
“इन राजकुमार से काहे पूछ रहे बाबूजी ! हमसे पूछिये न एम.एफ. हुसैन बनने की सोच रहे हैं ये। कहते हैं कि इंजीनियर नहीं बनना इन्हें। अब आप ही सुबुद्धि दीजिये अपने लाडले को,”जवाब उसने नहीं पापा ने दिया तो मन तिक्त हो उठा उसका, “पापा मुझे समझ नहीं पा रहे दादू जी ! मैं…., सहसा दृष्टि माँ पर उठी तो देखा उनकी नज़रों में साफ लिखा था, ‘कुछ न कहना आरू, ‘और वह खामोश हो गया।
“भई, मसला क्या है? हमें भी तो पता चले, “दादू ने पूछा तो पल भर को खामोशी छा गई जिसे तोड़ा एक सुरीले स्वर ने , “प्रणाम दादू जी!”
सामने ओस धुली किरण सी मुस्कुराती आरती दीदी खड़ी थीं। आर्यन का मन धवल कमल सा खिल उठा और माहौल भी महक उठा।मिलने-मिलाने की औपचारिकता के बाद आरती ने चहकते हुए कहा, “अब सब तैयार हो जाएँ नाश्ता करने को। मैं मटर-पोहा बना कर लाई हूँ और साथ में है… बीकानेरी कचौरियाँ और मावे वाली गर्मागर्म जलेबियाँ।”
“वाह! हमारी बिटिया के आने से अँगना में बहार आ गई।” नाश्ते की दावत के बाद दादू ने कहा तो आरती मुस्कुराई, ” दादू जी! भीतर चल कर आपको दिखाऊँगी कि इस आँगन की बहार यानी इस सुर्ख फूलों से लदे हुलमोहर, उस पीली चंपावती, मधु-मालती की बेलों और रंगारंग गुलाबों की इन क्यारियों को कितनी सजीवता से हमारे आरू ने अपने चित्रों में उकेरा है।”
“अच्छा…आ, ” दादू पुलक उठे तो पापा ने व्यंग्य घुले स्वर में कहा,” समय की बर्बादी और पैसे का उजाड़ा। माँ ने बिगाड़ रखा है।”
बर्तन समेटती माँ के हाथ कांप गये और आँखें छलक उठीं पर होंठ खामोश रहे।
“समय और पैसे की बर्बादी? पगला गये हो क्या केशव ? अरे ये तो सरस्वती मैया का वरदान है ,जो भाग्यवानों के हिस्से में आता है। बात क्या है ? तुम काहे इत्ते चिढ़े हुए हो ? खुल कर बताओ हमें।”
“अपने लाडले से ही पूछिये ना ।मैं क्या बताऊँ, ” तुनक कर बोले पापा तो दादू की निगाह आर्यन पर ठहर गई, “बोलो बबुआ।”
पर वह नज़रें झुकाये नि:शब्द बैठा रहा तो दादू ने उकसासा,” बिना अपने बाप से डरे कहो मुन्ना। तुम्हारे बाप के बाप हैं हम। न्याय करेंगे हम बिना पक्षपात के।”
“दादू जी! मैं के. के. कॉलेज ऑफ आर्टस से डिग्री कोर्स करना चाहता हूँ पर पापा नहीं मान रहे। वह जाहते हैं कि मैं इंजीनियरिंग करूँ और मैं यह नहीं कर सकता बल्कि कर ही नहीं पाऊँगा। बस इतनी सी बात है दादू जी!”
” हूं! अब तुम कहो केशव कि वह काहे इंजीनियर बने?”
“इसमें कैरियर का स्कोप ज्यादा है बाबूजी! और क्या मैं अपनी ही औलाद के लिये गलत निर्णय लूँगा ? आप ही कहिये।”
” बिल्कुल सही कहा तुमने। अरे तुम तो क्या दुनिया का कोई पिता अपने बच्चे के लिये गलत करना तो दूर, सोच भी नहीं सकता। जैसे हमने चाहा था कि तुम बिजनेस- स्टडी करो…”
“तो मैंने की न? आपका कहना माना न?”
“तुम अपनी नौकरी और ज़िन्दगी से खुश हो न? सच-सच बताना।”
“जी बाबूजी! खुश हूँ… बेहद खुश हूँ। “
” फिर काहे उम्र भर तुमने हमें ताने दिये कि आपने हमें इंजीनियर नहीं बनने दिया। ये शिकायत आज भोर में भी की तुमने हमसे। काहे?”
” बाबूजी ? आरती ने भी तो मेरा कहा माना। देखिये न कित्ती सुखी और संतुष्ट है यह आज। 40 हजार कमा रही है।”
“नहीं हूँ संतुष्ट मैं पापा! आज पहली बार आपके सामने जुबान खोल रही हूँ कि किसी भी डॉक्टर को देखती हूँ तो दिल में दर्द की लहर दौड़ जाती है। मैं उस गुज़रे वक्त को तो नहीं लौटा सकती पर अपने भाई के साथ तो खड़ी हो सकती हूँ न! “नयन-प्यालियाँ नीर से भर उठी थीं आरती की।
“सुन लिया केशव! तुम चाहते हो कि तुम्हारा बेटा भी सारी ज़िन्दगी तुम्हे कटघरों में खड़ा करता रहे? मत करो वो गलती जो हमने की और तुम भी कर चुके हो एक बार। “
“ठीक है। पर मैं इस फालतू के कोर्स पर पैसा खर्च नहीं करूँगा। कहे देता हूँ।” ” अरे ! कैसे ना खर्च करोगे और ना करोगे तो तुम्हारा यह बाप करेगा। अब पैसा हमें साथ तो ले कर जाना ना है। पर सुन लो सपूत ! तुम इंजीनियर ना बन पाये इसलिये अपनी ये अधूरी इच्छा इस मासूम पर लादो, यह ना होने देवेंगे हम। समझे?” “जो जी में आये करें आप लोग,” कहते हुए वह उठ कर चले गये।
कुछ देर वहाँ मौन पसरा रहा। फिर सहसा आरती ने देखा कि गुलमोहर के अबीरी फूलों और चटक हरी पत्तियों से छन कर धूप का एक नन्हा सा टुकड़ा आर्यन की गोदी में आन बैठा है। वह छोटी सी बच्ची की तरह किलक उठी,” देखो-देखो आरू ! तुम्हारे हिस्से की धूप तुम्हें मिल गई । “कुछ पल तक वे भाई-बहन उस टुकड़े को मुग्ध भाव से निहारते रहे।
फिर आरती ने चहुंओर नज़र घुमा कर देखा और दबे स्वर में बोली, ” जानते हो आरू! दादू जी को पापा ने नहीं मैंने बुलाया था… सारी स्थिति बता के, दादू शरारती बच्चे की तरह मुस्कुरा रहे थे और पूरा आँगन सुनहरी धूप से भर गया था पर उसे क्या करना था इतनी सारी धूप का ? उसके हिस्से की धूप तो उसकी प्यारी दीदी ने उसे दिला दी थी। सहसा भावनाओं का एक स्निग्ध सा ज्वार उठा उसके सीने में और विभोर हो कर वह दीदी के गले लग गया, ” थैंक यू दीदी!”