मनोरंजन मीडिया का एक प्रमुख कार्य

भरतमुनि का नाट्यशास्त्र है मनोरंजन के उत्पत्ति का स्रोत

by Bhanu Pratap Mishra

भानु प्रताप मिश्र

मनोरंजन मनुष्य के मस्तिष्क के तनाव को कम करने का एक उपकरण है। भारतीय में इसकी सभी विधाओं की उत्पत्ति भरतमुनि के नाट्यशास्त्र हुई थी। ऐसा भी कहा जा सकता है कि विश्व की मनोरंजन की सभी विधाओं के उत्पत्ति का स्रोत भरतमुनि का नाट्यशास्त्र है। क्योंकि भरतमुनि ने इस नाट्यशास्त्र को ईसा पूर्व 325 में लिपिबद्ध की थी।

वैसे तो कलाओं की उत्पत्ति सामवेद से हुई थी। जिससे भारतीय मुनियों ने कलाओं को विकसित करके अलग-अलग ग्रथों की रचना की। इन ग्रंथों में से सबसे पुरातन ग्रंथ भरतमुनि का नाट्यशास्त्र है और इसमें रस, छंद, नृत्य व नाट्य सहित कई अन्य कलाओं का उल्लेख मिलता है। इसके महत्त्व को इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि पत्रकारिता व जनसंचार के पाठ्यक्रमों में भी इसे पढ़ाया जाता है।

मनोरंजन वैदिक काल से समाज का अंग रहा है। समय के साथ मनोरंजन के साधनों में परिवर्तन होते होते आज मनोरंजन फिल्मों और हास्य धारावाहिकों में खोजा जाने लगा है। पूर्व में लोक कलाओं अर्थात् लोक संचार के माध्यमों से मनोरंजन का कार्य किया जाता था। इस लिए यह जानना आवश्यक हो जाता है कि लोक संचार क्या है ?

विद्वानों के मतानुसार लोक संचार एक ऐसी संचार व्यवस्था है, जिसमें पारम्परिक संसाधनों को ही संचार का माध्यम बनाकर समूह तक सूचना, मनोरंजन, ज्ञान-विज्ञान आदि पहुँचाया जाता था और वर्तमान में भी पहुँचाया जाता है। इस संचार प्रक्रिया में पारम्परिक लोक कलाओं का उपयोग चिर कालीन व्यवस्था रही है और लोक कलाओं के माध्यम से ही इस संचार प्रक्रिया में सन्देश सम्प्रेषण किया जाता है।

यही कारण है कि यह ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी जनसंचार माध्यमों की अपेक्षा अधिक लोकप्रिय है, क्योंकि इसकी प्रस्तुति और भाषा शैली दोनों वहाँ की स्थानीय स्थानीयता का प्रतिनिधित्व करते हैं। यही कारण है कि स्थानीय लोगों में सन्देश देना लोक संचार के माध्यमों से अधिक प्रभावशाली होता है। इसलिए आज भी लोक संचार के माध्यमों की प्रासंगिकता पूर्ववत बनी हुई है।

मनोरंजन में रस का कार्य
रस – सर्व प्रथम 400 ईसा पूर्व भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में रस सिद्धांत का उल्लेख मिलता है। रस सिद्धांत के विषय में मैंने अध्ययन किया और वैज्ञानिक तथ्यों पर परखा तो मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि रस मनुष्य के मनोदशा को परिवर्तित करने वाला एक कारक होता है। जो मनुष्य को आनन्द की अनुभूति भी करा सकता है और दुःखी होने पर विवश भी कर सकता है। वह मनुष्य की वर्तमान परिस्थितियों पर निर्भर करता है।

वर्तमान में जिस वातावरण में मनुष्य हो, उसकी मनोदशा वैसी ही परिवर्तित हो जाती है। क्योंकि वह उस समय, उस रस को प्राप्त कर रहा होता है। उदाहरण के लिए यदि मनुष्य हास-परिहास के वातावरण में हो तो वह अपने आपको हँसने से रोक नहीं सकता है या शोक के वातावरण में हो तो शोक युक्त हो जायेगा।

इसका वैज्ञानिक पक्ष यह है कि मनुष्य में वातावरण के अनुरूप रस की प्राप्ति होती है, जिससे उसमें भिन्न-भिन्न प्रकार के हार्माेन का सेक्रेशन होने लगता है, अर्थात् जिस हार्माेन का सेक्रेसन अधिक होता है। उसके कारण उसके मन का भाव परिवर्तित हो जाता है। इसलिए वह व्यक्ति उस अवस्था में पहुँच जाता है या मनुष्य उस समय स्थायी रूप से किसी मंत्रणा में हो, तो उस दौरान उसके मन को रस प्रभावित कर रहा होता है।

इसलिए उसका मन दूसरे स्थान पर रहता है और मनुष्य दूसरे स्थान पर होता है। जैसे – हम किसी व्यक्ति से चर्चा कर रहे होते हैं, तो वह व्यक्ति वाक्य पूरा हो जाने के बाद, पूछता है कि हाँ तो हम कहाँ थे या विद्यार्थी कक्षा में पढ़ रहा होता है और उसको शिक्षक द्वारा पूछे गए प्रश्न ध्यान में नहीं रहता है आदि इसके उदाहरण हैं।

रस मुख्यतः 11 प्रकार के होते हैं।
(1) श्रृंगार रस (2) हास्य रस (3) करूण रस (4) रौद्र रस (5) वीर रस (6) भयानक रस (7) वीभत्स रस (8) अद्भुत रस (9) शांत रस (10) वात्सल्य रस (11) भक्ति रस

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